अद्वय
अद्वय का सामान्य अर्थ है दो का न होना। यह ईश्वर के बारे में भी लागू होता है क्योंकि वह केवल और केवल एक ही है, दो नहीं। कई बार इसे द्वैधीभाव के अभाव के रुप में भी समझा जाता है।वेदान्त दर्शन में भी अनेक विद्वानों ने अद्वैत के अर्थ में भी अद्वय का प्रयोग किया है परन्तु बौद्ध दर्शन का अद्वय अद्वैत नहीं है। अद्वैत के अर्थ में अद्वय शब्द का प्रयोग आचार्य गौड़पाद, शंकर के शिष्य सुरेश्वर तथा नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव ने भी किया है। श्रीमद्भागवत पुराण में ब्रह्म या परमात्मा को अद्वय कहा गया है।
परन्तु अद्वय का प्रयोग बौद्ध दर्शन में स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यम मार्ग के अर्थ में किया गया है जिसका अर्थ है दो अतिवादी मार्गों में न चलकर मध्य मार्ग में चलना। शाश्वत और उच्छेद, इन दोनों अन्तों के परिहार के मार्ग को भी अद्वय कहते हैं।
इस मार्ग में ग्राह्य तथा ग्राहक भाव की निष्पत्ति न होने तथा सभी प्रकार के अस्ति-नास्ति (है तथा नहीं है) जैसे विकल्प निरस्त हो जाते हैं प्रपंचशून्य परमार्थ ही शेष रह जाता है। अर्थात् यह परमार्थ ही अद्वय रुप हो जाता है, और इससे ही कल्याण सम्भव है। ऐसी शून्यता की स्थिति में बोध्य तथा बोधक जैसी भावना का स्थान परमार्थ ही ले लेता है। यही कारण है कि नागार्जुन जैसे विद्वान शून्यता को अद्वय लक्षण मानते हैं।
इस विचारधारा में प्रज्ञा अथवा ज्ञान को भी अद्वय माना गया है। इसी ज्ञान का उपदेश देने के कारण भगवान बुद्ध को भी अद्वय या अद्वयवादी माना जाता है। उनका अद्वयवाद संसार तथा निर्वाण को भी दो नहीं बल्कि उनमें ऐक्य मानता है।
महायान बौद्ध साधना के वज्रयान में करुणा तथा शून्यता, उपाय तथा प्रज्ञा, एवं पद्म तथा वज्र के मिलन को अद्वयाकार कहा गया। इसे ही प्रज्ञोपाय भी कहा गया।
वास्तव में वज्रयानी वज्र, शून्यता, समता तथा प्रज्ञापारमिता को अद्वय का समानार्थक मानते हैं। यह गगन के समान निर्लेप, असंग, विशुद्ध तथा प्रभास्वर है। उनके अनुसार यह अद्वय ही परमार्थ तत्व है। सही महासुख और निर्वाण भी है।
हिन्दी के सिद्ध साहित्य में सहजपुरुष के अनुभव तथा ज्ञान को अद्वयाकार माना गया है। धर्मता एवं शून्यता दोनों यहां एक हो जाते हैं। सिद्धों ने महासुख को भी अद्वय माना।