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अध्यात्मवाद

अध्यात्मवाद दर्शन की वह परम्परा है जिसमें आत्म (स्व शरीर) से या में ही सत् का दर्शन किया जाता है अथवा उसे जाना जाता है। यह मानता है कि शरीर के बाहर जो कुछ भी है वह अधिभूत (गोचर जगत) है तथा उसका भी नियंता अधिदैवत (गोचर जगत से परे या अगोचर जगत) है।

अध्यात्मवाद का मानना है कि मिट्टी के असंख्य खिलौनों को देखकर आश्चर्य होता है तथा व्यक्ति खिलौनों को ही देखने में अपना जीवन नष्ट कर देता है। उन खिलौनों को समझ नहीं पाता क्योंकि आयु कम हैं और खिलौनों की संख्या अनन्त। इसलिए सभी खिलौनों को देखने और समझने का काम संभव नहीं हो पाता। यदि किसी तरह उस मिट्टी को जान लिया जाये जिससे सारे खिलौने बने हैं तो सबको एक ही साथ जानना संभव हो सकेगा। अधिभूत तथा अधिदैव को जानने के लिए उसी तरह यदि आत्म या स्वयं को जान लिया जाये तो सबको जानना सम्भव हो सकेगा। इसी आत्म या स्व को जानने के दर्शन को अध्यात्मवाद कहा जाता है।

यही कारण है कि धर्म दो भागों में विभक्त है - एक दर्शन तथा दूसरा अध्यात्म। इस अध्यात्म में शरीर रूपी साधन को ठीक रखने के लिए योगादि और कर्म या कर्मकांड आते हैं और साधक क्रमशः अन्तर्मुखी होकर आत्म तत्व को जानने का प्रयत्न करता है। इसी को अध्यात्म में सत् कहा गया है।

अध्यात्मवाद के अनुसार साधक समुचित साधना कर इन्द्रियातीत जगत में पहुंचकर उस सत् को जान सकता है। इसके अनुसार मृत्यु (देह के अन्त) के बाद भी आत्मा मरती नहीं, तथा ब्राह्मी स्थिति में आकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। दार्शनिक जगत में यह अध्यात्मवाद आदर्शवाद का रूप ग्रहण कर लेता है।


Page last modified on Friday November 22, 2013 12:38:39 GMT-0000