अनलहक
अनलहक का सामान्य अर्थ है 'मैं ब्रह्म हूं'। ईरान में नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस अवधारणा का जन्म हुआ। इसके प्रणेता थे विख्यात सूफी संत मंसूर बिन अल हल्लाज। उन्हें अनलहक कहने के लिए ही सूली पर चढ़ा दिया गया था क्योंकि ऐसी अवधारणा इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध थी।परन्तु उनके बाद भी मंसूर की अवधारणा पर इस्लामी जगत में विचार-विमर्श चलता रहा और बाद में कहा गया कि वास्तव में उनका यह विचार इस्लाम विरुद्ध नहीं है बल्कि इसमें इस्लाम का सामंजस्य है। अनहलक का अर्थ निकाला गया कि परमात्मा के एकत्व में ही सभी प्राणी समाहित हैं। जब अपनी साधना के बल पर व्यक्ति इस सांसारिक जगत से परे जाकर जिस अवस्था को प्राप्त करता है वही वास्तविक अवस्था है और वही अवस्था परमात्मा है। इसमें मैं, तुम, हम आदि का स्थान नहीं रह जाता क्योंकि सभी एक हैं। कहा गया कि जब मंसूर ने अनलहक कहा तो वह उस समय अहं भाव से परे जा चुके थे। इसलिए उनके वचन परमात्मा के ही वचन थे।