Loading...
 
Skip to main content
(Cached)
अन्तःप्रतिरोध मन की एक अवस्था है जिसमें अचेतन और चेतन के बीच प्रतिरोध बना रहता है। अचेतन के चेतन में आने की प्रवृत्ति और उसे दमित करने की प्रवृत्ति के कारण ऐसे अन्तर्विरोध उत्पन्न होते हैं।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भावनाओं के अचेतन दमन तथा उनके पुनः प्रकटीकरण की शक्तियों के एक साथ सक्रिय होने के कारण व्यक्ति में ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है।
फ्रायड ने इड, इगो और सुपर इगो की चर्चा की है। प्राचीन काल की भारतीय चिंतन परम्परा में इसे तम, रज, तथा सत्व के नाम से जाना गया था। पहले स्वरुप में व्यक्ति को पता नहीं होता कि अच्छा क्या है और बुरा क्या, दूसरी अवस्था में मालूम रहता है लेकिन समय आने पर व्यक्ति अच्छा तथा बुरा दोनों कार्य कर लेता है, और तीसरी अवस्था में व्यक्ति अच्छे कार्य के प्रति कटिबद्ध रहता है। इन तीनों अवस्था को इदम्, अहम् और उच्च अहम् भी कहा जाता है।
वासनाएं पाशविक प्रवृत्ति है, इसलिए अहम तथा उच्च अहम् उन्हें नियंत्रित करता है क्योंकि वैसे भी सभी वासनाएं न तो पूरी हो सकती हैं और न वे उचित हैं। ये दमित अहम् और दमित वासनाएं धीरे-धीरे अवचेतन और फिर अचेतन में चली जाती हैं, और अन्ततः अभ्यास योग से समाप्त हो जाती हैं। परन्तु जब ये समाप्त नहीं होतीं तब ये पुनः प्रकट होने को प्रयत्नशील रहती हैं। मनोरोगियों में यह दशा अन्तःप्रतिरोधी शक्तियों के रुप में उभरती हैं।
ऐसे मनोरोगी अचेतन या अवचेतन के चेतन में आने के दबाव में अत्यन्त कष्ट अनुभव करते हैं, क्योंकि अहम् और उच्च अहम उन्हें प्रकट होने से रोकते हैं।
ऐसे मनोरोगियों के अन्तर्प्रतिरोध को हटाना मनोवैज्ञानिकों के लिए कठिन कार्य होता है, क्योंकि रोग के मूल के निकट पहुंचते ही रोगी का विचार-अनुसंग किसी अन्य दिशा में चला जाता है।

Page last modified on Thursday December 13, 2012 06:00:17 GMT-0000