अन्तश्चेतना शब्द का प्रयोग अन्तर्ज्ञान, अन्तर्बोध और अन्तःकरण के अर्थों में भी होता है, परन्तु है भिन्न। यह तो मानव की वह शक्ति है जिससे वह तत्काल जान जाता है कि क्या अच्छा और क्या बुरा है, क्या शुभ है और क्या अशुभ, क्या सत् है और क्या असत् आदि। अन्तश्चेतना में हमें मालूम होता है कि क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नहीं है। यह अलग बात है कि बुद्धि और तर्क से हम इस अन्तश्चेतना के निर्णय को नजरअंदाज कर देते हैं।
अन्तश्चेतना का अपना ही अस्तित्व है, जो स्वाभाविक या सहज रुप मे मानव के अन्दर विद्यमान है।
आम धारणा यह है कि किसी भी काम को करने के पहले यह अपना निर्णय सुना देती है, तथा यह सदा समुचित मार्ग ही बतलाती है।
धर्म, दर्शन और नीति शास्त्र में अन्तश्चेचना की अलग-अलग परिभाषाएं हैं।
धर्म के अनुसार यह दिव्य ईश्वरीय प्रेरणा है।
नीति शास्त्र के अनुसार यह छठी ज्ञानेन्द्रिय के समान है जिस उचित या अनुचित का बोध उतनी ही सहजता है होता है जितनी सहजता से अन्य ज्ञानेन्द्रियों को स्वाद, गंध, आदि का।
फिर भी इतना तो माना ही जाता है कि यह एक ऐसे आन्तरिक बोध कराती है जिससे सही और गलता का पता होता है तथा जो लोगों को सही मार्ग पर चलने में सहायक होती है।
इस धारणा के अनुसार अन्तश्चेतना को मालूम होता है कि कौन सा कर्म अपने आप में शुभ और कौन सा अशुभ है। इसका विचारण अन्तश्चेचना सामाजिक या अन्य नियमों के अनुसार नहीं करती बल्कि कर्मों के अन्तर्निहित गुण-दोष के आधार पर करती है।
कई बार यह अन्तश्चेतना स्वयं पर सामाजिक मूल्य थोप लेता है और तब वह विकृत मानी जाती है, अर्थात् उसकी शुद्धता नहीं रह जाती।
सुपर इगो या सत्व प्रधान होने के कारण अन्तश्चेतना का विनिर्दिष्ट मार्ग ही समुचित होता है।
महर्षि अरविन्द के अनुसार यही चैत्यपुरुष है।
अन्तश्चेतना का अपना ही अस्तित्व है, जो स्वाभाविक या सहज रुप मे मानव के अन्दर विद्यमान है।
आम धारणा यह है कि किसी भी काम को करने के पहले यह अपना निर्णय सुना देती है, तथा यह सदा समुचित मार्ग ही बतलाती है।
धर्म, दर्शन और नीति शास्त्र में अन्तश्चेचना की अलग-अलग परिभाषाएं हैं।
धर्म के अनुसार यह दिव्य ईश्वरीय प्रेरणा है।
नीति शास्त्र के अनुसार यह छठी ज्ञानेन्द्रिय के समान है जिस उचित या अनुचित का बोध उतनी ही सहजता है होता है जितनी सहजता से अन्य ज्ञानेन्द्रियों को स्वाद, गंध, आदि का।
फिर भी इतना तो माना ही जाता है कि यह एक ऐसे आन्तरिक बोध कराती है जिससे सही और गलता का पता होता है तथा जो लोगों को सही मार्ग पर चलने में सहायक होती है।
इस धारणा के अनुसार अन्तश्चेतना को मालूम होता है कि कौन सा कर्म अपने आप में शुभ और कौन सा अशुभ है। इसका विचारण अन्तश्चेचना सामाजिक या अन्य नियमों के अनुसार नहीं करती बल्कि कर्मों के अन्तर्निहित गुण-दोष के आधार पर करती है।
कई बार यह अन्तश्चेतना स्वयं पर सामाजिक मूल्य थोप लेता है और तब वह विकृत मानी जाती है, अर्थात् उसकी शुद्धता नहीं रह जाती।
सुपर इगो या सत्व प्रधान होने के कारण अन्तश्चेतना का विनिर्दिष्ट मार्ग ही समुचित होता है।
महर्षि अरविन्द के अनुसार यही चैत्यपुरुष है।