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आश्रम

आश्रम मानव जीवन की एक अवस्था है जिसमें वह स्थित होता है।

आश्रम चार हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहाश्रम या गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम तथा संन्यास आश्रम।

ब्रह्मचर्याश्रम जीवन की प्रथम अवस्था है जिसमें व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करना होता है। ब्रह्मचर्याश्रम में पंच महायज्ञों में प्रथम दो ब्रह्म अथवा ज्ञान तथा देव यज्ञ अर्थात् जिनमें दिव्य गुण हों उनकी सेवा करने तथा जिन जिन गुणों से ईश्वर की उपासना की जाती है उन्हें अपने जीवन में धारण किया जाता है। ब्रह्मचर्य आश्रम के प्रारम्भ का विधान है कि बालक या बालिका के आठ वर्ष होने के पहले ही उन्हें गुरुकुल में शिक्षा के लिए भेज दिया जाये। वहां किसे कितने वर्ष रहने हैं इसका विधान पात्र पर निर्भर करता है। परन्तु इतना निश्चित है कि युवावस्था आने तक बालक या बालिका को गुरु के आधीन रहना है।

शिक्षा ग्रहण कर लेने के बाद व्यक्ति विवाह कर अपना घर बसाता है तथा इस प्रकार गृहाश्रम में प्रवेश करता है। गृहस्थ रहते हुए व्यक्ति को तीन महायज्ञ - पितृ, वैश्वदेव तथा आतिथ्य यज्ञ करने होते हैं। गृहाश्रम के नियमों में रहते हुए जब व्यक्ति के पुत्र तथा पुत्री के भी पुत्र-पुत्री हो जाते हैं उस आयु के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करने का विधान है।

अनेक व्यक्ति गृहाश्रम के बाद वानप्रस्थ होने के लिए अपना घर छोड़ देते हैं तथा वन में जाकर निवास करते हैं। वानप्रस्थ शब्द वन में जाकर बसने से ही बना। यह आश्रम तपश्चर्या, स्वाध्याय तथा विद्यादान के लिए है। ध्यान रहे कि यह वैराग्य का आश्रम नहीं है। वानप्रस्थ में पति-पत्नी दोनों साथ जा सकते हैं।

उसके बाद वैराग्य उत्पन्न होने तथा परोपकार की भावना से अनेक व्यक्ति संन्यास ग्रहण कर परिव्राजक हो जोते हैं। अर्थात् वन अथवा निर्जन स्थान में जहां लोगों का आना-जाना कम होता है वैसे स्थान में रहने की अपनी व्यवस्था को भी छोड़ कर घुमन्तु हो जाते हैं। संन्यास की अवस्था में वे घूमते हुए ज्ञान का विस्तार करते हैं क्योंकि परोपकार की भावना से वे ओतप्रोत होते हैं। संन्यासियों की अनेक शाखाएं हैं जिनमें से कई भिक्षाटन भी करते हैं तथा कई तो भिक्षाटन भी नहीं करते परन्तु जो कोई श्रद्धालु स्वयं भोजन देता है तो ग्रहण कर लेते हैं। कई दूसरों से वस्त्र ग्रहण कर लेते हैं परन्तु कई उन वस्त्रों से ही अपना काम चलाते हैं जो सड़कों पर फेंके हुए मिल जाते है। गृहस्थों पर बोझ न पड़े इसलिए वे ऐसा करते हैं। सदाचरण सभी आश्रमों में व्यक्ति का धर्म है परन्तु सन्यासियों के लिए कुछ विशेष मार्ग बताये गये हैं।

चारों आश्रमों के निश्चित शास्त्रीय नियम हैं। उन्हें निर्धारित कर्म करने होते हैं। इन आश्रमों में कब और कौन प्रवेश करे अथवा न करे उसका भी विधान है।



Page last modified on Thursday March 20, 2014 03:52:05 GMT-0000