उन्मीलित
साहित्य में उन्मीलित एक अर्थालंकार है। जब दो वस्तुएं एक दूसरे में मिले होते हैं परन्तु किसी कारणवश दोनों वस्तुओं की अलग-अलग प्रतीति करायी जाती है तो उस अलंकार को उन्मीलित अलंकार कहा जाता है, अर्थात् ऐक्य होने पर भी भेद की प्रतीति करायी जाती है।इस अलंकार के उपयोग से अभेद का भेद खुल जाता है।
बिहारी का एक उदाहरण देखें -
मिली चंदन बेंदी रही, गोरे मुख न लखाय।
ज्यों-ज्यों मद लाली चढ़ै, त्यों-त्यों उघरत आय।
उपर्युक्त पहली पंक्ति में चंदन और गोरे मुख का एक जैसा दिखना अभेद है। दूसरी पंक्ति में इस अभेद का भेद खुल जाता है।