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उपयोगितावाद

किसी भी विचार, कार्य, वस्तु या व्यक्ति आदि का मूल्यांकन उनकी उपयोगिता के आधार पर करने की प्रवृत्ति, या ऐसा करने के मत को उपयोगितावाद कहा जाता है।

उपयोगितावाद का सिद्धान्त वैसे प्राचीन काल से ही प्रचलित है परन्तु साहित्य में इस वाद का जन्म यूरोप में अट्ठारहवीं शताब्दी में हुआ और इसका विशेष रूप से प्रचार वहीं उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ।

इसके प्ररम्भिक प्रयोक्ताओं में बेंथम, ऑस्टिन और मिल जैसे व्यक्तिवादी दार्शनिक थे। ऐसे दार्शनिकों का मानना था कि राजनीतिक संस्थाएं, राज्य की नीतियां आदि किसी आदर्श, काल्पनिक अधिकारों एवं कर्तव्यों के लिए नहीं हैं, वरन् उनकी महत्ता मानवीय सम्बंधों की एक निश्चित और स्थिर उपयोगिताओं में सहायक होने में है। 'सर्वाधिक संख्या का अधिकतम सुख' को ही उन्होंने समाज के नियमों का एकमात्र सिद्धान्त माना।

प्ररम्भ में उपयोगितावाद व्यक्तिवादी था परन्तु धीरे-धीरे यह समाजोन्मुख हुआ। इस प्रकार उपयोगिता का आधार व्यक्ति से समाज हो गया, क्योंकि पाया गया कि व्यक्ति की निरंकुश स्वतंत्रता समाज में 'सर्वाधिक संख्या का अधिकतम सुख' स्थापित करने के विपरीत था। यहीं से व्यक्तिगत तथा सामाजिक उपयोगिता में भेद उत्पन्न हुआ, तथा व्यक्तिवाद और समाजवाद नाम से दो वादों का जन्म हुआ।


Page last modified on Thursday July 31, 2014 06:16:56 GMT-0000