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कंहरऊ

कंहरऊ या कंहरुआ एक विशेष प्रकार के गीत हैं जो भारत में कंहार जाति के लोग पारम्परिक रूप से गाते रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि इस जाति के लोग पारम्परिक रूप से पालकी ढोने का काम करते रहे हैं। विवाह के बाद दुलहन की पालकी को जब ये अपने कंधों पर ढोकर उसके ससुराल ससुराल ले जाते थे तो रास्ते में श्रृंगार रस से ओतप्रोत एक विशेष प्रकार के मधुर गीत गाते चलते थे। इन्हीं गीतों को कंहरऊ या कंहरुआ कहा जाता है। इस बात को समझने के लिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि भारत में बाल-विवाह की प्रथा थी तथा कानूनी रूप से भी कन्या के लिए विवाह की आयु 18 वर्ष तो 1973 के बाद निर्धारित हुआ। उसके पूर्व कानूनी व्यवस्था के तहत, कन्या के विवाह के लिए 12 वर्ष की ही आयु निर्धारित थी। उसके और पूर्व तो 11, 10 और नौ वर्ष में ही कन्या का विवाह हो जाता था। कम आयु के दुल्हन के होने के कारण ही उसे पालकी ढोकर ले जाने की प्रथा विकसित हुई थी। आधुनिक युग में मोटरवाहन आदि के आने तथा 18 वर्ष या उससे भी काफी अधिक उम्र में विवाह होना प्रारम्भ होने तथा सामाजिक परिवर्तनों के कारण पालकी प्रथा लगभग समाप्त हो गयी है।

विवाह के अवसर पर मेहमानों के लिए पानी भरने के अलावा कंहार लोग वैवाहिक उत्सव में विशेष रूप से भाग लेते थे। परम्परा के अनुसार वैवाहिक उत्सवों पर उनके नाचने गाने का बड़ा महत्व हुआ करता था। इस अवसर पर वे एक विशेष प्रकार का बाजा बजाते थे जिसका नाम है हुडुक। हुडुक नामक वाद्ययंत्र एक हाथ से पकड़ा जाता है तथा दूसरे एक ही हाथ से पीटकर बजाया जाता है। इन गीतों को भी कंहरऊ या कंहरूआ कहा जाता है। इस अवसर के गीत दुलहन की पालकी ढोने के समय के गीत से अपने भावना में भिन्न होते थे। इस समय के गीत में समाज का सामान्य या व्यंग्य भरा चित्रण भी होता था। हास्य भी होता था और उनमें गंभीर विषय भी होते थे। कंहारों या समाज के अन्य वर्ग के लोगों की वेदना से भरे गीत भी एक विशेष शैली में गाये जाते थे। बाल-विवाह पर भी तीखी टिप्पणियां और उसकी वेदना आदि का भी चित्रण मिलता है।

बूढ़े कंहार की वेदना पर भी मार्मिक गीत गाये जाते थे और समाज को बताया जाता था कि सम्पूर्ण समाज का बोझ अपने कंधों पर (पालकी के रूप में) ढोने वाला कंहार जब बूढ़ा हो जाता है तो किस स्वयं प्रकार समाज और घर -परिवार का बोझ बन जाता है, तथा उसका बोझ कोई भी ढोने को तैयार नहीं होता। ये गीत बड़े मर्मस्पर्शी होते थे।

समाज की आंखें खोलने में इन कंहरऊ का योगदान बहुत बड़ा था परन्तु उसका अभी तक ठीक से मूल्यांकन नहीं किया गया है।

भारतीय समाज ने कंहारों तथा कंहरऊ के योगदान को भुला दिया है। आज कंहार जाति को लोगों की बड़ी दुर्दशा है। सरकार और समाज को चाहिए कि वे उन्हें भी विकास का लाभ प्रदान करने की पूरी व्यवस्था करें।

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कहरवा ताल, कहानी, काग, कांची के पल्‍लव, काजला

Page last modified on Monday May 26, 2025 02:34:43 GMT-0000