कविचर्या
कवि की चर्या या उसके कार्यव्यापार को कविचर्या कहा जाता है।राजशेखर की काव्यमीमांसा में कविचर्या नामक एक अध्याय ही है जिसमें उन्होंने बताया है कि कवि की चर्या कैसी होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि
कवि निरन्तर शास्त्रों और कलाओं का परायण करे,
मन, वाणी तथा कर्म में पवित्र रहे,
स्मितिपूर्वक संलाप करे,
उसका भवन साफ-सुथरा तथा सभी ऋतुओं में अनुकूल रहे,
उसके परिचारक अपभ्रंश भाषा में बोलें,
अन्तःपुर के वासियों को प्राकृत तथा संस्कृत का ज्ञान हो,
उसके मित्र सर्वभाषाविद हों,
उनके पास लेखन सामग्री हमेशा उपलब्ध रहे,
अपनी अधूरी रचना को दूसरे के सामने न पढ़े,
वह अपने समय के चार विभाग करे,
प्रातःकाल संध्या से निवृत्त होकर सूक्त पाठ करे
उसके बाद अध्ययन कक्ष में जाकर विद्याओं और काव्यों का अनुशीलन करे,
दूसरे प्रहर काव्य रचना करे
मध्याह्न के लगभग स्नान कर भोजन करे,
उसके बाद काव्य गोष्ठी करे,
चौथे पहर या याम में स्वरचित काव्य की परीक्षा करे।
कविचर्या का यह प्राचीन स्वरूप है, जिनमें से कई चर्याएं आज भी कवियों के लिए प्रासंगिक हैं।