कापालिक
खोपड़ी या कपाल धारण करने वाले तांत्रिकों या वाममार्ग के अघोर साधकों को कापालिक कहा जाता है। विद्यारण्य तथा आनन्दगिरी नामक तंत्र साहित्य में कापालिकों के वर्णन में बताया गयी कि ये जटाएं रखते हैं, जटाओं में नवचन्द्र की प्रतिमा रहती है, हाथ में नरकपाल का कमंडल रहता है तथा मद्य-मांस के सेवन वे इसी में रखकर करते हैं। वैसे भगवान शिव को भी कापालिक कहकर सम्बोधित किया जाता है।कापालिक का उल्लेख महाभारत में आता है। सातवीं शताब्दी में कपालेश्वर मंदिर में पुलकेशिन द्वितीय के भतीजे ने जो दानपात्र दिया था उसमें भी महाव्रती के रूप में कापालिकों का उल्लेख है। परन्तु एक सम्प्रदाय के रूप में कापालिकों का चित्रण तो आठवीं शताब्दी में भवभूति रचित मालतीमाधव में ही मिलता है।
कापालिक ऐसा कठोर व्रत क्यों लेते हैं, इसका एक जवाब यह दिया जाता है कि भगवान शिव की तरह ये समाज के पापकर्मों का बोझ स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं तथा समाज के लोगों को उनके पापों के फलों से बचाने का प्रयत्न करते हैं। वे पाप कर्म से लोगों को विमुख करने का प्रयत्न करते हैं। उनके व्रत के मूल में लोकमंगल की ही कामना होती है। कापालिकों की प्रतिष्ठा भारतीय लोकजीवन में इसी कारण रहा है। आज कापालिकों की संख्या काफी कम है।