गोमांस
गोमांस का सामान्य अर्थ है गऊ का मांस। परन्तु योग और अध्यात्म में गऊ या गाय का अर्थ भिन्न है। भारतीय हिन्दू परम्परा में गऊ को मां का दर्जा दिया गया है तथा गोमांस का भक्षण वर्जित है। अनेक हिन्दू ग्रंथों में गोमांस भक्षण की जो बात कही गयी है उसका अर्थ यह नहीं है की गाय मारकर उसका मांस खायें। संत कबीर गाय मारने की घोर निन्दा करते हैं परन्तु उनके एक पद में 'सुरभि भक्षण' (सुरभि का अर्थ गाय है) की बात इस प्रकार कही गयी है -नितै अमावस नितै ग्रहन होइ राहु ग्रास तन छीजै।
सुरभि भच्छन करत वेदमुख घन बरिसै तन छीजै।
यहां सुरभि भच्छन का अर्थ खोचरी मुद्रा बांधकर चंद्रमा से क्षरित होने वाले अमृत को पीना है। इसके लिए जीभ, जिसे भी योग में गऊ कहा जाता है, को उलटकर कपाल गुहा में ले जाया जाता है जहां चन्द्रमा से क्षरित होने वाले अमृत रस को पीया जाता है।
हठयोग प्रदीपिका में इसी अर्थ में कहा गया है कि नित्य गोमांस भक्षण और अमरवारुणी का पान करना चाहिए। जो योगी ऐसा करता है वही कुलीन है और शेष सभी कुलघातक।
कौलज्ञान निर्णय में भी गोमांस को पांच उत्तम भोज्यों में रखा गया है, परन्तु उसका भी योगपरक अर्थ यही है।
योगियों में गाय को ज्ञानेन्द्रियों के रूप में मानने की परम्परा है क्योंकि इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति संसार में जो कुछ गोचर है उनका ज्ञान प्राप्त करता है। इसी गोचर से अगोचर ब्रह्म की ओर यात्रा करने की बात कही जाती है।