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घासलेटी साहित्य

घासलेटी शब्द का प्रयोग विकृत घी के लिए किया जाता है, और इस प्रकार घासलेटी साहित्य का सामान्य अर्थ हुआ विकृत साहित्य। सबसे पहले अनैतिकता तथा लैंगिक विकृतियों को प्रश्रय देने वाले साहित्य को विशाल भारत के सम्पादक बनारसीदास चतुर्वेदी ने घासलेट कहा था।

घसलेटी साहित्य के विरुद्ध सन् 1928, 1929, और 1930 में जोरदार आन्दोलन चला था और उस समय की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में इसपर खूब लिखा गया। गोरखपुर के सम्मेलन में इसके विरुद्ध प्रस्ताव भी पारित हुआ।

इस विवाद में गांधीजी के विचार भी सामने आये क्योंकि उन्होंने भी एक-दो ऐसी पुस्तकें भी पढ़ी थी। वह भी ऐसे साहित्य के विरुद्ध थे।

इस विवाद का जन्म तब हुआ जब पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की चाकलेट, अबलाओं का इन्साफ, दिल्ली का दला जैसी कहानियां प्रकाशित हुईं जिनकी आदर्शवादी समीक्षकों ने तीब्र भर्त्सना की। उग्र ने अपनी सफाई में कहा था कि उनका उद्देश्य विकृतियों को प्रश्रय या बढ़ावा देना नहीं बल्कि समाज की निकृष्टताओं के प्रति लोगों में अरुचि उत्पन्न करना था।

जो भी हो, भारत ही नहीं दुनिया भर की भाषाओं में घासलेटी सहित्य लिखे और पढ़े जा रहे हैं। अनेक लेखक और प्रकाशक इसके फलते-फुलते व्यापार से धन कमाने के लिए ऐसा कर रहे हैं, परन्तु कुछ लेखक मनोवैज्ञानिकता के नाम पर ऐसा कर रहे हैं। उपन्यासों में नग्न और गंदे चित्रण सामाज में विकृतियां उत्पन्न कर रहे हैं, तथा ये समाज के लिए घातक बन रहे हैं। मानव की पतनशील प्रवृत्तियों को घासलेटी साहित्य में प्रश्रय तथा प्रोत्साहन दिया जा रहा है, जो अहितकर है।

Page last modified on Tuesday April 21, 2015 06:33:13 GMT-0000