चादर
चादर एक वस्त्र है जिसके शरीर ढका जाता है। यह आयताकार होता है और आकार में उतना बड़ा होता है जिसके की सोते या लेटते समय आदमी का पूरा शरीर ढक जाय। इसका उपयोग वैसे भी व्यक्ति अपने शरीर के उपरी भाग को ढकने के लिए करता है, विशेषकर उस समय जब वह खड़ा या बैठा होता है। जाड़े के मौसम में ऊनी चादरों का भी उपयोग किया जाता है।परन्तु सन्त साहित्य या अध्यात्म में इस शब्द का प्रयोग गूढ़ अर्थ में किया गया है। कबीरदास ने अपने पद – झीनी झीनी बीनी चदरिया में इस गूढ़ अर्थ में इसका प्रयोग किया है। उन्होंने इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के तन्तु माना है जिसके ताने-बाने से बना यह पंचभौतिक शरीर को चादर कहा। वह इस चादर को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके लिए शरीर व्यर्थ नहीं है। वह मानते थे कि यह माया है, असत्य है और केवल ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सबकुछ मिथ्या है, परन्तु शरीर व्यर्थ नहीं है। साईं अर्थात् ईश्वर ने दस महीने लगाकर जिस चादर को स्वयं बनाया है उसे वह आखिर व्यर्थ कैसे मानते। यह तो ईश्वर (प्रिय या पिय) द्वारा दी गयी उपहार की वस्तु है व्यर्थ कैसे हो सकती है।
लोभ, मोह और पाप से यह चादर मैली होती है। ज्ञान के साबुन से इसे साफ किया जाता है। इसे यत्न पुर्वक संभालकर रखना चाहिए। क्योंकि यह चादर बार-बार नहीं मिलता है।
सोचु समझ अभिमानी, चादर भई है पुरानी।
… करि डारि मैली पापन सौं लोभ मोह में सानी।
ना यहि लग्यो ज्ञान कै साबुन ना धोई भल पानी।...
कहत कबीर धरि राखु जतन ते फेर हाथ नहीं आनी।।