वेदान्त के अनुसार चित्त चौथा अन्तःकरण है। यही चित्त पूर्व और वर्तमान के अनुभवों का स्मरण कराता है तथा उनके विषय में चिंतन की शक्ति प्रदान करता है। बुद्धि तो एक बार निश्चय कर देती है परन्तु उसके बाद उस निश्चय को बार-बार ध्यान में रखकर कार्य करना चित्त की ही प्रवृत्ति है।
चित्त को प्रकृति का ही परिणाम माना जाता है। जड़ होते हुए भी चेतन से अभिभूत रहने के कारण यह भी चेतन की भांति प्रतीत होता है।
चित्त में किसी भी समय ध्येय वस्तु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता, केवल ध्येय ही अनुरंजित तथा प्रतिबिंबित रहता है।
सिद्ध सिद्धान्त के अनुसार चित्त के धर्म हैं - मति, धृति, संस्मृति, उत्कृति, तथा स्वीकार।
चित्त को प्रकृति का ही परिणाम माना जाता है। जड़ होते हुए भी चेतन से अभिभूत रहने के कारण यह भी चेतन की भांति प्रतीत होता है।
चित्त में किसी भी समय ध्येय वस्तु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता, केवल ध्येय ही अनुरंजित तथा प्रतिबिंबित रहता है।
सिद्ध सिद्धान्त के अनुसार चित्त के धर्म हैं - मति, धृति, संस्मृति, उत्कृति, तथा स्वीकार।