चोर
चोर वह व्यक्ति है जो चोरी करता है। ऐसे व्यक्ति को समाज में अपराधी कहा जाता है और उसके लिए दंड का विधान है।
परन्तु भारतीय दर्शन में चोर का प्रयोग चंचल चित्त; विषयासक्त मन; काम, क्रोध, मोह, और लोभ आदि वृत्तियों; तथा काल के अर्थ में भी किया गया है। संत साहित्य तथा नाथ परम्परा में इस शब्द का सांकेतिक प्रयोग मिलता है। गोरखनाथ, कबीर, तुलसीदास आदि ने अपने अनेक पदों में इसका दार्शनिक प्रयोग किया है।
संत कवियों ने कई बार एक चोर की बात कही है और कई बार एक से अधिक चोरों की बात कही है। जहां कहीं भी एक चोर की बात कही गयी है वहां इस शब्द का प्रयोग चित्त, मन, या काल के अर्थ में हुआ है। एक से अधिक चोरों का भी उल्लेख मिलता है तीन चोर काम, क्रोध, लोभ, चार चोर काम, काम , क्रोध, मोह तथा लोभ के लिए, तथा पांच चोर या दस चोर इन्द्रियों के लिए किया गया है।