जिक्र
परमात्मा के नाम के स्मरण को सूफी जिक्र कहते हैं।सूफीवाद के प्रारम्भ में मान्यता यह थी कि साधक हर वक्त जिक्र के माध्यम से ऐसी अवस्था प्राप्त करे जिसमें परमात्मा के सिवा अन्य सभी वस्तुओं का ज्ञान उनके अन्दर से खत्म हो जाए। परन्तु बाद में इसमें कई अन्य बातें जुड़ गयीं जिससे इसका अर्थ ही पलट गया।
सूफी सम्प्रदायों में जिक्र की अनेक क्रियाएं प्रचलित हैं। बताया जाता है कि इन्हें करने वाले सूफी साधक को 'हाल' की अवस्था प्राप्त हो जाती है। यह परमात्मा में भावाविष्ट अवस्था है जिसे प्राप्त करते ही साधक के मन में परमात्मा के सिवा किसी अन्य का खयाल ही नहीं आता।
जिक्र की क्रियाएं अलग-अलग सूफी सम्प्रदायों या उपसम्प्रदायों में अलग-अलग हैं। इनमें से अनेक क्रियाएं अत्यन्त कठिन हैं। सूफी साधक सामान्यतः ऐसी क्रियाएं अपने शेख या पीर की उपस्थिति में करते हैं, परन्तु मुर्शिद या गुरु के बिना भी अकेले या समूह में ऐसी क्रियाएं की जाती हैं। इन क्रियाओं को करते-करते साधकों की एक ऐसी अवस्था होती है जब वे शारीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं करते। वे जलते हुए अंगारे तक मुंह में ले लेते हैं।
जिक्र के दो प्रकार हैं - जिक्रे जली तथा जिक्रे खफी।
जिक्रे जली में साधक जोर-जोर से अल्लाह का नाम लेता है। उत्तरोत्तर आवाज तेज होती जाती है। फिर कुछ समय बाद उसे लगने लगता है कि आवाज कभी दाहिन घुटने से आती है तो कभी बायें से और कभी बगल से। साधक को एक निश्चित क्रम का अनुसरण करना पड़ता है। ऐसा करते करते एक अवस्था ऐसी आती है जब साधक प्रार्थना की मुद्रा में मक्के की ओर मुंह करके आंखें बन्द कर लेता है। फिर आवाज को नाभि से खींचकर बाएं कन्धे की ओर ले जाता है और ला शब्द का उच्चारण करता है। उसके बाद वह इलाह कहता है मानो अपनी आवाज मस्तिष्क से खींचता है। अन्त में बायीं ओर बगल से आवाज को खींचता है और पूरी ताकत लगाकर इल्लल्लाह कहता है।
जिक्रे खफी में मन ही मन उनका स्मरण किया जाता है। इसमें साधक धीरे-धीरे या मन ही मन शब्दों का उच्चारण करता है। उसके बाद साधक आंखें और जिह्वा बंद कर लेता है और उसके बाद हृदय की जिह्वा से कहता है - अल्लहु समीयून (परमात्मा जो सुनता है), अल्लहु बसीरुन (परमात्मा जो देखता है), अल्लहु आलीमुन (परमात्मा जो जानने वाला है)। जब वह अल्लहु समीयून बोलता है तब उसे नाभि से हृदय तक ले जाता है, अल्लहु बसीरुन को हृदय से मस्तिष्क तक, तथा अल्लहु आलीमुन को मस्तिष्क से अन्तरिक्ष तक, और फिर उसी क्रम से पीछे लौटता है। इसे वह बार-बार करता है। वह धीमे स्वर से अल्लाह कहता है मानो पहले दाहिने घुटने की तरफ से, फिर बायें से और फिर उसके पार्श्व से यह आवाज आती है। जब वह सांस छोड़ता है तब तो ला इलाह कहता है और जब खींचता है तब इल्लल्लाह कहता है। इस तीसरे जर्ब को सैकड़ों हजारों बार दुहराया जाता है क्योंकि इसे बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र माना जाता है। यह कार्य अत्यन्त श्रमसाध्य है।