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जीव

जीव का सामान्य अर्थ जीवधारियों के शरीर में व्याप्त वह तत्व है जिसके कारण जीवन है। शरीर तो पदार्थ मात्र है।

भारतीय चिंतन परम्परा में जीवधारियों में जीव को ब्रह्म का ही एक अंश माना गया है। उसी ब्रह्म की ज्योति से सभी प्रकाशित हैं अर्थात् सभी चेतन हैं। चित् ब्रह्म की चेतनता ही प्रकाश है। वह अपने ही अंशमात्र से सभी जीवधारियों में विद्यमान है। परन्तु देही होने के कारण यह अंश विलक्षण है।

भारतीय दर्शन परम्परा के शैव मत में माया के छह कंचुकों से बद्ध शिव को ही जीव कहा जाता है। कौल साधना के 36 तत्वों में जीव तेरहवां तत्व है। सांख्य में इसी को पुरुष कहा गया है।

कौल साधना में हृत्पद्म में जीव को स्थित माना गया है। सहस्रार स्थित परमशिव से ही इस जीव को चैतन्य मिलता है जबकि मूलाधार में स्थित कुंडलिनी से इसे शक्ति प्राप्त होती है।

साधक द्वारा मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी को जागृत कर षट्चक्रों से पार करता हुआ सहस्रार स्थित परमशिव से सामरस्य कराने का प्रयास तो इसी जीव को मुक्त कराने के लिए किया जाता है। कुंडलिनी या जीवशक्ति के जागरण से, कहा जाता है कि, माया के सारे कंचुक स्वयमेव कट जाते हैं तथा जीव मुक्त होकर सदाशिव या परमशिव में विलीन हो जाता है।

Page last modified on Sunday February 26, 2017 14:14:41 GMT-0000