जीवात्मा
प्रत्येक जीवधारी में एक आत्मा का वास माना जाता है जिसके कारण ही प्राणी प्राणवान है।इस आत्मा को ही जीवात्मा के रुप में जाना जाता है।
यह जीवात्मा शरीर के अन्दर कहां वास करता है, इसपर मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है परन्तु अन्य मानते हैं कि इनका वास हृदय में है। कुछ तो इसे मस्तिष्क में रहने वाला मानते हैं।
जो यह मानते हैं कि इस जीवात्मा का वास हृदय में है वे इसे अंगुष्ठ मात्र पुरुष भी मानते हैं।
द्वैतवादी इस जीवात्मा को परमात्मा से अलग मानते हैं जबकि अद्वैतवादी इस जीवात्मा को ही परमात्मा या परब्रह्म मानते हैं।
इस प्रकार अनेक जीवात्मा को जीवब्रह्म भी मानते हैं।
संत साहित्य में जीवात्मा शब्द का प्रयोग जीवब्रह्म, आत्मा, परमात्मा और परब्रह्म के अर्थों में भी मिलता है।
भारतीय चिंतन परम्परा में जीवात्मा वह है जिसमें राग (इच्छा), द्वेष, पुरुषार्थ (प्रयत्न), सुख, दुःख, तथा ज्ञान प्राप्त करने के गुण होते हैं। ऐसा भारतीय चिंतन परम्परा के न्याय दर्शन का मानना है।
परन्तु वैशेषिक में कई अन्य चीजें भी शामिल की गयी हैं। ये हैं – प्राण (भीतर से प्राण वायु को बाहर निकालना), अपान (प्राण वायु को बाहर से अन्दर खींचना), निमेष (आंखों पर पुतलियां नीचे करना), उन्मेष (पुतलियों को ऊपर ले जाना), जीवन (प्राण वायु को धारण करना), मन (मनन करने वाला), गति (यथेष्ट गमन करने की शक्ति), इन्द्रिय (इन्द्रियों को विषयों में चलाने की शक्ति), इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करना, अन्तर्विकारों (क्षुधा, तृष्णा, ज्वर, पीड़ा, आदि) का होना, तथा सुख, दुःख, इच्छा द्वेष तथा प्रयत्न करना।