ज्ञानाश्रयी शाखा
ज्ञानाश्रयी शाखा मध्यकाल के निर्गुणधारा की वह शाखा है जिसमें परमात्मा को ज्ञानज्ञेय मानकर ज्ञान के माध्यम से प्राप्त करने की बात कही गयी है। इस निर्गुणधारा की दूसरी शाखा है शुद्ध प्रेममार्गी शाखा, जिसमें परमात्मा को ज्ञान के माध्यम से नहीं बल्कि शुद्ध प्रेम के माध्यम से पाने की बात कही गयी है।ज्ञानाश्रयी शाखा में ज्ञान का आश्रय लिया जाता है तथा प्रेममार्गी शाखा में प्रेम का। इसका अर्थ यह नहीं की ज्ञानाश्रयी शाखा में प्रेम तथा प्रेममार्गी शाखा में ज्ञान की बात न कही गयी हो। अन्तर केवल इतना है कि ज्ञानाश्रयी शाखा में मुख्यतः ज्ञान पर बल दिया जाता है तथा प्रेममार्गी शाखा में प्रेम पर। अनन्य प्रेम की पराकाष्ठा ईश्वर का ज्ञान ही है, और ज्ञान की पराकाष्ठा ईश्वर से अनन्य प्रेम।
ज्ञानाश्रयी शाखा का ज्ञान वह नहीं है जो ज्ञान हम सामान्य जीवन में इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करते हैं, यह तो अतीन्द्रिय बोध है। यह कोई बाह्यज्ञान नहीं बल्कि अन्तर्ज्ञान है।
ऐसे ज्ञान को सहजज्ञान भी कहते हैं। कबीर ने इसी ज्ञान को ब्रह्मगियान (ब्रह्मज्ञान) कहा है, तथा इसके बने रहने को सहज समाधि। कबीर कहते हैं कि इस सहज समाधि में करोड़ों कल्पों तक भी विश्राम किया जा सकता है। सहज समाधि में हृतयकमल पूर्णतः विकसित हो जाता है। फिर परम ज्योति का प्रकाश होता है जिसके आलोक में सभी भ्रम समाप्त हो जाते हैं तथा सबकुछ आप से आप सूझने लगते हैं। काल पर विजय प्राप्त हो जाती है तथा आवागमन का झमेला भी खत्म हो जाता है। फिर एक ऐसी स्थिति आती है जिसका वर्णन संभव नहीं। कबीर ने इसे ही ज्ञानलहर के धुन का जगना या ज्ञान की आंधी का उठना कहा है।
ज्ञानाश्रयी शाखा का ज्ञान तत्वचिंतन से उत्पन्न ज्ञान नहीं है परन्तु हृदय से ज्ञान का बोध है। कहा गया कि तत्वचिंतन से वस्तु-स्थिति का परिचय मात्र मिलता है, पूर्णबोध नहीं होता, परन्तु हृदयप्रसूत ज्ञान से पूर्णबोध होता है। ज्ञानाश्रयी स्वयं को पूर्णबोध के कारण ईश्वर से एकरूप कर लेता है। वह अपने को परमात्मा से पृथक नहीं जानता।