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त्रिमार्ग सिद्धान्त

त्रिमार्ग सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का वह सिद्धान्त है जिसमें काव्य के तीन मार्ग बताये गये हैं। ये हैं सुकुमार मार्ग, विचित्र मार्ग, तथा मध्यम मार्ग। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कुन्तक (10-11 वीं शताब्दी) ने रीति के स्थान पर किया। उनका कहना था कि मार्ग काव्य रचना में प्रवृत्त होने का हेतुरूप है। यह कवि का मूल स्वभाव ही है जो उसकी शैली का निर्धारण करता है, न कि देश, विदेश, प्रदेश आदि की शैली। इसलिए काव्य-प्रस्थान के भेद हैं - सुकुमार, विचित्र, तथा मध्यम।

सुकुमार मार्ग सत्कवियों का मार्ग है। इसमें नवीन शब्द-अर्थ की उद्भावना होती है। इसमें अलंकारों, रसों आदि काव्य के विभिन्न तत्वों का सहज तथा स्वाभाविक प्रयोग होता है। इसमें नवनिर्माण की शोभा, मन को रमाने वाला शब्द सौंदर्य, सरसता, मधुरता आदि गुण होते हैं। जो सच्चे कवि हैं वे इसी मार्ग पर चलते हैं। संक्षेप में माधुर्य, प्रसाद, लावण्य, तथा आभिजात्य गुणों से ये भरपूर होते हैं।

विचित्र मार्ग अलंकारिक मार्ग है। अलंकारों का आकर्षण और उनका चमत्मार ही इसका विशेष गुण है। अलंकार एक दूसरे से जुड़ते हैं तथा शब्दार्थ वक्रता से वे जगमगाते हैं। यह श्रमसाध्य तथा कृत्रिम सजावट का मार्ग है। इसमें उक्ति वैचित्र्य प्रधान गुण है।

मध्यम मार्ग सुकुमार तथा विचित्र मार्गों के बीच का मार्ग है। इसमें सहजता तथा अलंकारिकता दोनों का प्रयोग होता है।

Page last modified on Friday March 17, 2017 06:25:34 GMT-0000