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द्वंद्वात्मक नियति

द्वंद्वात्मक नियति एक दार्शनिक परिकल्पना है जिसमें कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु में उसके विनाश का बीज रहता है। फिर विनाश के बाद भिन्न रूप में वह वस्तु पुनः अवतरित होती है। इसी अनिवार्य तत्व को नियति कहा गया।
इसी सिद्धान्त पर विश्वास करते हुए कार्ल मार्क्स ने कहा कि पूंजीवादी समाज के गर्भ में ही साम्यवादी बीज है जो जन्म लेकर रहेगा। हमारे चाहने और नहीं चाहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
सोरोकिन ने इन्द्रियाग्रही, अनीन्द्रियाग्रही, तथा अध्यात्म प्रधान नामक महासंस्थनों की परिकल्पना की है तथा कहा है कि प्रत्येक महासंस्थान सत्य तथा असत्य का सम्मिश्रण है। मनुष्य सत्य से आकृष्ट होकर महासंस्थान बनाता है, परन्तु जब उसमें असत्य का प्रभुत्व हो जाता है तब वह नष्ट होकर नये स्वरूप को ग्रहण करता है। इस तरह उसमें ही उसके विनाश का बीज रहता है। स्थापना, प्रतिस्थापना, तथा समन्यव के सुनिश्चित क्रम को ही द्वंद्वात्मक नियति माना गया है, जिसका आधार द्वंद्वन्याय ही है।


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