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धर्ममेघ समाधि

धर्ममेघ समाधि योग की एक अवस्था है। यह साधना की अन्तिम सीमा है। पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा है कि विवेकज ज्ञान (प्रसंख्यान) में भी विरागयुक्त (कुसीदास) होने पर सर्वथा विवेकख्याति होने से धर्ममेघ समाधि उत्पन्न होती है।

चित्तवृत्ति के निरोध से योग या समाधि होती है। चित्त त्रिगुणात्मक है। ये गुण हैं सत्त्व, रज, और तम। जब सत्त्व गुण का पूर्ण विकास होता है तब चित्त स्वस्वरूप में अवस्थित हो जाता है तथा उसमें विवेकख्याति विषयक समापत्ति (बुद्धि और पुरुष के भेद का ज्ञान) उत्पन्न होती है, और यही अवस्था धर्ममेघ समाधि कही जाती है।

इसका नाम धर्ममेघ इसलिए पड़ा क्योंकि यह आत्मदर्शन रूप परमधर्म (कैवल्य) की वर्षा कर साधक के चित्त को सींचता है।

धर्ममेघ समाधि की उपलब्धि व्यक्ति को समस्त क्लेशों से मुक्त कर देता है। इससे सम्यक् निवृत्ति या सम्यक निरोध सिद्ध होता है। इसी को जीवनमुक्ति कहा जाता है।

धर्ममेघ की परिकल्पना बौद्धदर्शन में भी है। कहा जाता है कि इस अवस्था में बोधिसत्त्व सभी प्रकार की समाधियों को प्राप्त कर लेता है। इस दर्शन में धर्ममेघ समाधि को अभिषेक भी कहा जाता है।

सन्तों ने मेघ बरसने की चर्चा इसी सन्दर्भ में की है। कबीर कहते हैं -
गगन गरजै बिजुली चमकै, उठती हिए हिलोर।
बिगसत कंवल मेघ बरसाने चितवत प्रभु की ओर।



Page last modified on Wednesday April 5, 2017 07:31:13 GMT-0000