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निद्रा

मन सहित इन्द्रियों के पूर्ण विश्राम की अवस्था को निद्रा कहते हैं। निद्रा की अवस्था में शरीर स्वयं को तरोताजा करता है। जाग्रत अवस्था में थके हुए शरीर एवं मन को विश्राम मिलने से ऐसा होता है। सामान्यतः जीवधारी दिन को सक्रिय रहते हैं तथा रात आने पर सो जाते हैं।

अर्ध निन्द्रा की स्थिति में व्यक्ति का मन सक्रिय रहता है इसलिए इस अवस्था में व्यक्ति स्वप्न देखता है। इस अवस्था को स्वप्निल अवस्था कहते हैं।

मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसका अत्यन्त महत्व है। वास्तव में आहार के बाद यह आरोग्य का दूसरा स्तम्भ है। महर्षि चरक ने कहा है कि अन्तःकरण और मन के थक जाने पर जब इन्द्रियां अपने-अपने विषय कार्यों से विमुख हो जाती हैं, तब निद्रा आकर उन्हें पुनरुज्जीवित कर देती है। वह कहते हैं कि निद्रा पर सुख निर्भर है। उनका तो यहां तक कहना है कि सुख तथा दुःख, पुष्टि तथा कृशता, बल तथा अबल निद्रा के अधीन है।

व्यक्ति के काम करने में ही नहीं बल्कि उठने-बैठने चलने-फिरने आदि में भी शरीर तथा मन की शक्ति खर्च होती है तथा यह ऊर्जा क्षीण होती है। जाग्रत अवस्था में इस प्रकार निरन्तर होने वाली क्षति को पूरा करने के लिए प्रकृति ने जीवधारियों के लिए निद्रा की व्यवस्था की है ताकि नयी स्फूर्ति मिलती रहे।

चिकित्सकों का यह मत है कि बच्चों के शरीर की वृद्धि नींद में ही होती है। माता के दूध के बराबर विकास तो नींद से ही होता है। जन्म काल के बाद देखा गया है कि बच्चे 20-22 घंटे तक सोते हैं। मनुष्य का शारीरिक विकास जिस अवस्था तक होता है उस अवस्था तक नींद अधिक आती है उसके बाद धीरे-धीरे कम होती जाती है। निद्रा में गड़बड़ी होने से व्यक्ति का स्वास्थ्य खराब होने लगता है। इसिलिए कुशल चिकित्सक अपने रोगियों के रोग दूर करने के लिए रोगी के हित में उसके नींद की भी व्यवस्था कर देते हैं। शरीर अपनी रोग निरोधक तथा निवारण शक्ति से निद्रा की अवस्था में स्वयं को अधिक कारगर तरीके से ठीक करता है। नींद आने से रोग का प्रकोप कम होता दिखता है। उन्माद जैसे रोगों के लिए तो एकमात्र नींद ही दवा है। नींद से जख्म तेजी भरता है क्योंकि नींद में मांस तेजी से बढ़ता है। इसलिए आवश्यकता से अधिक सोना भी मोटापा का कारण बन जाता है।

आयुर्वेद में निद्रा तीन प्रकार का बताया गया है - तामसी, आगन्तुकी तथा भूतधात्री।

मन तथा शरीर के थकने पर कफ के द्वारा जो नींद आती है उसे तामसी निद्रा कहते हैं। यह भी थके हुए व्यक्ति को स्वास्थय तथा शांति प्रदान करती है।
सन्निपात जैसे रोग, सिर पर चोट लगने, नशीले पदार्थों के सेवन आदि से जो नींद आती है उसे आगन्तुकी निद्रा कहते हैं। आगन्तुकी निद्रा को स्वयं में एक रोग माना जाता है।
जीवों का कल्याण करने वाली रात्रि की स्वाभाविक निद्रा को भूतधात्री निद्रा कहते हैं।

निद्रा का उचित स्वरूप

चरक संहिता में कहा गया है कि सुख चाहने वाला व्यक्ति अकाल शयन, अधिक शयन, तथा अत्यन्त शयन का त्याग कर दे।

निद्रा का उचित समय रात्रि ही है। विवेकशील व्यक्ति को इसलिए सामान्य स्थितियों में रात्रि में ही सोना चाहिए।

एक वयस्क सामान्य व्यक्ति के लिए आठ घंटे की नींद पर्याप्त होती है।

अपने काम-काज के अनुरूप व्यक्ति को नींद का समय तथा उसकी मात्रा निर्धारित करनी चाहिए।

Page last modified on Saturday April 5, 2014 04:45:35 GMT-0000