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निरंजनी सम्प्रदाय

निरंजनी सम्प्रदाय का नाम किसी स्वामी निरंजन के नाम पर पड़ा, परन्तु उनके बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं है। कुछ विद्वान इसे नाथ सम्प्रदाय और निर्गुण सम्प्रदाय की ही एक शाखा मानते हैं। निरंजनी सम्प्रदाय की साधना पद्धति निर्गुण है। वास्तव में जितने में निर्गुण संत हुए - जैसे कबीर, नानक, दादू, और जगन - उनका सबंध निरंजन से है।

नाम को ही वे धागा मानते हैं जो निरंजन से सम्बंध स्थापित करता है। उनके अनुसार निरंजन परमतत्व है। वह न तो उत्पन्न होता है और न ही नष्ट। वह एक सा, निर्लिप्त, अखिल चराचर में व्याप्त है। निरंजन अगम और अगोचर है। वह निराकार, नित्य, और अचल है। घट-घट में उसी की माया है। वह अप्रत्यक्ष रहकर समस्त सृष्टि का संचालन करता है।

उनकी मान्यता है कि निरंजन अवतार के बन्धन में भी नहीं बंधता। श्रीहरिपुरुष की वाणी में हरिदास कहते हैं -

"दस औतार कहो क्यूं भाया, हरि औतार अनंत करि आया
जल थल जीव जिना अवतारा, जलससि ज्यूं देखो ततसारा।"

उनकी साधना पद्धति में साधक को अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को अन्तर्मुखी कर मन को निरंजन निराकार ब्रह्म में नियोजित करने को कहा जाता है। वे उलटी डुबकी लगाकर अलख की पहचान करने की बात करते हैं और कहते हैं कि तभी जाकर गुण, इन्द्रिय, मन, तथा वाणी स्ववश होती है। उसकी उलटी रीति की साधना में इडा और पिंगला नाड़ियों के बीच स्थित सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करने को कहा जाता है। उनके अनुसार सुषुम्ना को जाग्रत कर अनहदनाद श्रवण करते हुए बंकनालि के माध्यम से शून्यमण्डल में प्रवेश कर अमृतपान करने वाल ही सच्चा योगी है।

निरंजनी सम्प्रदाय के 12 प्रमुख प्रचारक थे - 1. थरोली के लपट्यौ जगन्नाथदास, 2. दत्तवास के स्यामदास, 3. चाडूस से कान्हडदास, 4. झारि के ध्यानदास, 5. सिवहाड के षेमदास, 6. टोडा के नाथ, 7. जगजीवन, 8. शेरपुर के तुरसीदास, 9. लिवाली के आनन्ददास, 10. भम्भोर के पूरणदास, 11. देवपुर के मोहनदास, और 12. डीडवाणे के हरिदास।

हरिदास को निरंजन सम्प्रदाय का सर्वश्रेष्ठ गुरु माना जाता है। दादू ने भी उनकी प्रशंसा की थी। गोरखनाथ और कबीरदास पर उनकी बहुत श्रद्धा थी। उनका निधन सम्वत् 1700 में माना जाता है।

Page last modified on Friday May 30, 2025 14:03:41 GMT-0000