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पंजाबी भाषा और साहित्य

पंजाबी भाषा और साहित्य मुख्य रूप से पंजाब भौगोलिक क्षेत्र जहां पांच नदियां - झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास, और सतलुज - बहती हैं, में बोली और पढ़ी लिखी जाती है। आज यह भौगोलिक क्षेत्र भारत और पाकिस्तान दोनों में विभक्त है जहां पंजाब नाम के प्रांत हैं। इसका विस्तार उन अन्य राज्यों में भी मिलता है जहां पंजाबी भाषा-भाषी लोग रहते हैं। सिख और पंजाबी बिरादरी का इस भाषा और साहित्य से गहरा लगाव है।

पंजाबी भाषा कितनी पुरानी है यह ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता परन्तु पंजाब युनिवर्सिटी इन्क्वायरी कमेटी की 1932 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि यह इंडो-आर्यन भाषाओं में से निकली सभी बोलियों में सम्भवतः सबसे पूरानी है। ध्यान रहे कि पंजाब युनिवर्सीटी की स्थापना 1882 में लाहौर में हुई थी, और आजादी के बाद 1956 में भारत के चंडीगढ़ में आयी। यह दावा किया जात है कि पंजाबी भाषा ईसा पूर्व छठी शताब्दी में काफी प्रचलित थी क्योंकि इसके अनेक शब्द महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर के बोले गये वचनों में मिलते हैं। बौद्ध और जैन साहित्य में पाये जाने वाले वे शब्द आज भी पंजाब में ठीक वैसे ही बोले जाते हैं। उदाहरण के लिए - दुध, नक, कन, हथ, पिठ, सत और अठ। अन्य भाषाओं जैसे हिन्दी में ये शब्द बदलकर दूध, नाक, कान, हाथ, पीठ, सात और आठ हो गये। इस तरह पंजाबी और हिन्दी बहनें हैं।

पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी है, जिसे द्वितीय सिख गुरु, गुरु अंगद देव ने 16वीं शताब्दी के मध्य में विकसित किया था। गुरु नानक का भी इसे समर्थन प्राप्त था, और गुरुओं के मुख से जो सुना गया उसे गुरुमुखी नाम दिया गया। ध्यान रहे कि सिखों का धार्मिक ग्रंथ गुरुमुखी लिपि में ही लिखा गया है। संभवतः यही कारण है कि लोगों में भ्रम है कि गुरुमुखी केवल सिखों की लिपि है, जो गलत है। यह सम्पूर्ण पंजाबी बिरादरी की भाषा की लिपि है, तथा इसके साहित्य के विकास में सिखों और गैर-सिख पंजाबियों दोनों का योगदान रहा है। पहले देवनागरी में ही पंजाबी लिखी जाती थी जिसके शब्द बौद्ध धर्मग्रंथ धम्मपद, प्राचीन जैन साहित्य, और कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी मिलते हैं। अभिज्ञान शाकुन्तलम में हेठा, रुख, पुत, अख आदि शब्द मिलते हैं जिसके हिन्दी रूप हैं नीचे, पेड़, पूत, आंख।

यद्यपि पंजाबी भाषा काफी पुरानी मालूम होती है, इस भाषा की सबसे पुरानी रचना फरीद शकरगंजी (जन्म 1173), पूरा नाम हजरत फरीदुद्दीन मसऊद शकरगंजी, की है जिनके कलाम हमें प्राप्त हुए हैं। इसी कारण उन्हें पंजाबी का पहला लेखक माना जाता है। बाबा फरीद प्रसिद्ध फकीर थे। उनके साथ अनेक लोग काबुल से पंजाब आये थे इसलिए उनकी कविताओं में फारसी का भी प्रभाव था। उनके काव्य में ईश्वर के प्रति भक्ति थी, और सूफियाना प्रभाव था।

भक्ति काल में पंजाबी भाषा का काफी विकास हुआ। गुरु नानाक, गुरु अर्जुन, और भाई गुरुदास की अनेक कविताएं प्राप्त होती हैं। उस काल में अनेक नये छन्दों में रचनाएं की गयीं जिनमें प्रमुख थे - वारहमाह, वार, सद, घोडी आदि। भक्ति का सूफियाना रंग उत्तर भक्ति काल के कवियों - बुल्लेशाह, शाहहुसैन, सुल्तान वाहुअली हैदर, करमअली शाह, शेख शरफ, गुलाम जीलानी, हाशिम हिदयातुल्ला और गुलाम रसूल - की रचनाओं में भी मिलता है।

भक्तिकाल के बाद की पंजाबी कविता ने एक नया युग प्रारम्भ किया जिसमें प्रेम एक मुख्य विषय रहा। हीर-रांझा, मिर्जा -साहिबां, सस्सी-पुन्नू, कामरूप, सोहनी-महिवाल आदि के किस्से कविता में पिरोये गये। हीर का सबसे पुराना किस्सा दामोदर रचित है, और उनकी कविता कि पंक्ति - आख दामोदर मैं अखीं डिठा - से लगता है कि वह हीर-रांझा के समकालीन थे। वारिसशाह ने 35 वर्ष की आयु में हीर का किस्सा लिखना आरम्भ किया। उनके बारे में कहा जाता है कि वह भागमरी नाम की एक लड़की से प्रेम करते थे और उन्होंने अपने ही प्रेम को हीर के किस्से में गया है। वारिसशाह की शैली पंजाबी में आज भी लोकप्रिय है। हाशिम ने शीरी-फरहाद, लैला-मजनूं, सोहनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू आदि के किस्से और कुछ दोहरे लिखे।

उसके बाद पंजाबी कविता का नया दौर 19वीं शताब्दी के कवि शाह मुहम्मद के साथ आया। वह महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी कवि थे, और उनकी कविता में देश-प्रेम था। पंजाब की धरती, परम्परा, पंजाब के सरदारों, और पंजाब के सिपाहियों आदि सभी से प्रेम उनकी कविता में झलका। शाह मुहम्मद के वे सभी शत्रु थे जो पंजाब के शत्रु थे, चाहे वे मुसलमान ही क्यों न हों।

पंजाबी साहित्य में नया दौर आया प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान। उसे नवीन पंजाबी साहित्य के नाम से जाना जाता है। युद्ध-प्रचार और पंजाबी सिपाहियों का मनोरंजन मुख्य विषय बन गया। युद्ध में गये पंजाबी जवानों ने दूसरे समुदायों के जीवन को देखा, और जो लौटे उन्होंने पंजाबी साहित्य में योगदान किया।

यह दौर अधिक समय नहीं चला। प्रथम विश्व युद्ध के समाप्त होते ही सिंहसभा की लहर जोर पकड़ी जिसमें सिख मत और सिख सभ्यता पर काफी बल था। गैर-सिखों के साथ विवाद भी रहा। इस दौर में पंजाबी गद्य का विकास हुआ। उसके तुरन्त बाद 1920 के दशक में अकाली आन्दोलन हुआ। दोनों का प्रभाव पंजाबी साहित्य पर पड़ा।

भाई वीर सिंह नवीन पंजाबी साहित्य के प्रथम कवि माने जाते हैं। उन्होंने सिख इतिहास और दर्शन पर काफी लिखा। पंजाबी में मुक्तक कविता की शुरुआत भी उन्होंने की तथा पंजाबी गद्य में भी उनका बहुत योगदान रहा। उन्होंने पहली बार सिरखण्डी छन्द में की। 'राणा पूत सिंह', 'बिजलियां दे हार, लहरां दे हार', 'मटक दुलारे' उनकी प्रसिद्ध रहचाएं हैं।

उस दौर में भाई मोहन सिंह वैद्य एक महत्वपूर्ण गद्य लेखक हुए। उन्होंने अनेक विषयों पर लिखा। उन्होंने एक पंजाबी अकादमी की भी स्थापना की और लगभग दुनिया की लगभग 200 पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद करवाया।

वास्तव में भाई वीर सिंह और भाई मोहन सिंह वैद्य नये पंजाबी साहित्य के प्रारंभिक स्तम्भ रहे। अन्य महत्वपूर्ण पंजाबी लेखक हुए - फिरोजदीन शरफ, विधाता सिंह 'तीर' और ज्ञानी गुरुमुख सिंह 'मुसाफिर'। लाला किपासागर ने 'लक्ष्मीदेवी' नामक प्रबंध-काव्य की रचना की। संस्कृत के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और विक्रमोर्वशीयम् नामक कालिदास के नाटकों का पंजाबी में अनुवाद हुआ। पंजाबी के मौलिक नाटकारों की रचनाएं भी इस दौर में लोकप्रिय हुईं जिनमें ईश्रचन्द्र नन्द की 'सुभद्रा' और 'लिलेदा ब्याह'; ब्रजलाल शास्त्री के नाटक 'सावित्री सुकन्या' और 'पूरण नाटक' तथा बाबा बुध सिंह के नाटक 'दामिनी' और 'नार नवेली' शामिल हैं।

उपन्यासकारों में प्रमुख हुए सरदार नानक सिंह जिन्होंनो लगभग दो दर्जन उपन्यास लिए। उनकी आन्य रचनाओं में तीन गल्प संग्रह भी शामिल हैं।

उनके बाद आया आधुनिक पंजाबी का दौर। उसपर अंग्रेजी का प्रभाव कुछ ज्यादा ही रहा जबकि समकालीन हिन्दी और उर्दू का प्रभाव नगण्य रहा। अमृतसर का खालसा कालेज इस दौर के पंजाबी साहित्यकारों का मुख्य केन्द्र रहा। वहां के प्रिंसिपल जोध सिंह, प्रिंसिपल तेजा सिंह, प्रिंसिपल गुरुवचन सिंह तालिब, प्रोफेसर मोहन सिंह आदि ने लगभग बीस वर्षों तक पंजाबी साहित्य के विकास में योगदान किया।

सन् 1936 में मोहन सिंह के सम्पादकत्व में 'लिखारी' नामक मासिक पत्र का प्रकाशन हुआ। उस समय से पंजाबी में प्रगतिशील साहित्य का दौर चला। मोहन सिंह की प्रगतिशील कविताएं, सन्त सिंह सेखों की नयी शैली की कहानियां - जैसे 'प्रेमी दे नियाणे' और 'मंझधार' आदि, और अनेक अन्य लेखकों की प्रगतिशील रचनाएं इसमें छपीं। बाद में 'लिखारी' का नाम बदलकर 'पंज दरया' कर दिया गया।

नये पंजाबी लेखकों में अमृता प्रीतम ने प्रतीकात्मक शैली में रचनाएं कीं। वह उस युग की प्रमुख महिला पंजाबी लेखिका थीं।

पंजाबी कहानी का जन्म 1935-36 में ही माना जाता है। कथ्यों की वर्जनाएं टूट गयीं। जीवन के बुरे पक्ष भी सामने लाये गये, और उन्हें विस्तार से सजाकर पेश किया गया। यह सब प्रगतिशील साहित्य के नाम पर हुआ परन्तु 1946 में यह दृष्टिकोण बदला और फिर साहित्य में जीवन को विकासोन्मुख दिखाया जाने लगा। जीवन के स्वस्थ मूल्यों पर जोर दिया जाने लगा।

देश के विभाजन के साथ पंजाबी साहित्य में नया मोड़ आया। साहित्य में साम्प्रदायिक रंग चढ़ा परन्तु वह बहुत दिनों तक टिका नहीं, यद्यपि साम्प्रदायिक दंगों में लाखों जानें गयीं, लाखों बेघर हुए। पंजाबी साहित्यकारों ने साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लिखा और मोहन सिंह, प्रीतम सिंह सफीर, अमृता प्रीतम, कर्तार सिंह दुग्गल जैसे साहित्यकार आम आदमी के साथ खड़े हो गये और उनके साथ हो रहे अन्याय की बात अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को सुनाने लगे। कुल मिलाकर देश की स्वतंत्रता के बाद पंजाब के लेखक भी एक स्वतंत्र देश के नागरिक के मिजाज से रचनाएं करने लगे। नये दौर के लेखकों में सुरेन्द्र लिंह नरुला, बलवन्त गार्गी, मोहन सिंह, अमृता प्रीतम, प्रीतम सिंह सफीर, कर्तार सिंह दुग्गल आदि अनेक रचनाकार हुए जिनपर पंजाबी साहित्य को गर्व है।

Page last modified on Saturday June 14, 2025 14:15:38 GMT-0000