परिग्रह
भारतीय दर्शन परम्परा में ब्रह्म के छह परिग्रह माने गये हैं - माया, कला, गुण, विकार, आवरण और अंजन। ब्रह्म को निर्गुण, निष्कल, असीम, और पूर्ण माना गया है, परन्तु माया उसे अपने कंचुकों और कलाओं से आवेष्टित कर निर्गुण से सगुन, निष्कल से सकल, असीम से ससीम, और पूर्ण से अपूर्ण बना देती है। माया, कला, गुण, विकार, आवरण, और अंजन उस एक ब्रह्म की प्रतीति अनेक जीवों में कराने लगता है और इस प्रकार एक अनेक हो जाता है। यही कारण है कि ये छह ब्रह्म के परिग्रह माने गये।माया ब्रह्म का पहला परिग्रह है क्योंकि सर्वप्रथम इसी माया के कारण ब्रह्म की अखण्डता के स्थान पर खण्ड दिखायी देने लगता है। माया सीमा निर्धारित कर देती है। यही उसकी कला है जो दूसरा परिग्रह है जो सभी खण्डों के भी आपस मे अलग होने का आभास देता है, जिनमें परस्पर संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। खण्डों का अखण्ड के प्रति आकर्षण, और खण्डों के प्रति विकर्षण के परिणाम स्वरुप गुण उत्पन्न होता है जो तीसरा परिग्रह है। गुण तीन हैं - सत्त्व, रज, और तम। यहां आकर निर्गुण ब्रह्म सगुण दिखने लगता है। उस गुण से विकार उत्पन्न होता है, जो चौथा परिग्रह है। यह विकार आवरण सृजित करता है, जो पांचवां परिग्रह है। मूल ब्रह्म तत्व पर आवरण के बाद एक दृष्टि दोष भी उत्पन्न हो जाता है जिसका कारण अंजन नामक छठे परिग्रह को माना जाता है। इसके बाद ब्रह्म नहीं दिखता, केवल जीव या पुरुष दिखने लगता है।
चार्वाक छःहों परिग्रहों को ही मानते हैं, और इस प्रकार वे संसार को ही सबकुछ मानते हैं। वे भौतिकवादी हैं। उनके लिए शरीर ही आत्मा है।
निरंजनी अंजन को नहीं मानते, और उनके लिए ईश्वर ही निरंजन और अलख है, इसलिए वह अलख निरंजन है। आत्मा को भी वे उसी का स्वरूप मानते हैं।
बौद्धों के लिए अंजन का अस्तित्व नहीं है। उनके लिए बुद्धि, अर्थात् अन्तःकरण की ज्ञान वृत्ति, ही आत्मा है, और इस प्रकार वे बौद्ध हुए। जो बुद्धि स्वरूप है वही बुद्ध है और वही ईश्वर है। बौद्ध पहले पांच परिग्रहों को ही मानते हैं।
परन्तु जैन पांचवें परिग्रह आवरण को भी नहीं मानते, और इसे उन्होंने निरावरण अर्थात् नग्न या दिगम्बर रुप में प्रकट किया। यह अलग बात है कि बाद में श्वेताम्बर भी आये। जैन मत में जो आवरण हटा दे वही तीर्थंकर हैं, वही ईश्वर हैं।
न्याय या वैशेषिक दर्शन में चौथे परिग्रह विकार को भी अस्वीकार किया गया है। ये गुण तक के केवल पहले तीन परिग्रह को ही मानते हैं और कहते हैं कि आत्मा और परमात्मा दोनों सगुण हैं।
सांख्य दर्शन में माया और कला केवल दो ही परिग्रह माने गये हैं। वे गुण को भी अस्वीकर कर देते हैं और उनका दर्शन निर्गुण दर्शन हो जाता है। उनके अनुसार जगत गुणमयी है, अर्थात् प्रकृति और वस्तु है, और ये ही जगत की रचना करते हैं। आत्मा से गुणों का कोई सम्बंध नहीं है।
वेदान्त केवल माया को मानता है, परन्तु उसे भी भ्रम ही कहता है। इसके अनुसार इस भ्रम को मानना आवश्यक इसलिए है क्योंकि इसके बिना सत्य को समझना सम्भव नहीं है। इसी माया के सापेक्ष उस परम सत्य का आभास होता है जिसे ब्रह्म या ईश्वर कहा जाता है।