प्रदर्शनवाद
प्रदर्शनवाद मानव की एक मनःस्थिति है जिसमें वह अपने कथित गुणों, वैभवों, और यहां तक कि अपनी नग्नता को भी प्रदर्शित करने लगता है।मनोवैज्ञानिकों के अनुसार ऐसी प्रवृत्ति शिशुओं के लालन-पालन तथा बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के समय ही परिवेश में होने वाली चूक के कारण पनपती है तथा फलती-फूलती है।
नग्नता के प्रदर्शन के मामले में उनका कहना है कि बचपन में वयस्कों या उनकी तस्वीरों को नंगी अवस्था में देख लेने आदि के कारण उनमें ऐसी व्याधि आ जाती है तथा वह या तो नंगा प्रदर्शन करना पसंद करने लगता है या फिर भयभीत रहता है कि कहीं कपड़े बदले समय उसे लोग देख न लें।
अन्य तरह के प्रदर्शनवादी भी मानसिक रूप से बीमार ही होते हैं लेकिन उनकी तीब्रता नग्नता प्रदर्शन करने वालों से कम होती है।
मनोचिकित्सक ऐसे मरीजों की इन अभिव्यक्तियों को बाधित करने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि उनका विश्वास है कि इसी मार्ग से उनका इलाज संभव है।
परन्तु समाजसुधारक तथा शिक्षाविदों का विचार अलग है जो संस्कारों के माध्यम से इसे रोकने की बात करते हैं।
समाज-व्यवस्था चलाने वाले तो ऐसे प्रदर्शनों पर रोक के पक्ष में ही अपना विचार व्यक्त करते हैं।
अब तो दैनंदिन जीवन में ही नहीं साहित्य तक में प्रदर्शनवाद का बढ़ना सामाजिक चिंता बन गयी है।