भारत में ईसाई धर्म
भारत में ईसाई धर्म सबसे पहले सन् 65 में आया ऐसा माना जाता है। इसका आधार यह धारणा है कि ईसा मसीह के एक शिष्य सेंट टॉमस इसी वर्ष भारत आये थे। उन्होंने सिरीयक सम्प्रदाय की स्थापना की थी। परन्तु ईसाई धर्म का भारत में प्रवेश उसके पूर्व मानने वालों का मत है कि दक्षिण भारत के मालाबार तट से ईसाई धर्मावलम्बियों का सम्पर्क इससे भी पहले स्थापित हो गया था।सिरीयक ईसाई धर्म प्रचारकों के बाद आने वालों में रोमन कैथलिक धर्म प्रचारक 13वीं शताब्दी से भारत आने लगे थे। इन्होंने जेसुइट ईसाई सम्प्रदाय का प्रचार किया। उसके बाद 15वीं शताब्दी तक आने वालों में अधिकांश पुर्तगाल के ईसाई थे।
जबरन धर्मान्तरण के प्रयास भी हुए, परन्तु वे उतने सफल नहीं हुए। फिर धर्मान्तरण के लिए प्रोत्साहन और तरह-तरह के प्रलोभन भी दिये गये।
सन् 1542 में सेंट जेवियर नामक एक विख्यात धर्म प्रचारक आये जिन्होंने मालाबार, मदुरै, मद्रास आदि स्थानों पर अनेक लोगों, जो पिछड़ी हुई जातियों से थे, को ईसाई धर्म में दीक्षित किया था। वे जेसुइट सम्प्रदाय से थे। उसके बाद के दौर में ईसाई मिशनरी धर्म प्रचारकों ने दक्षिण भारत की भाषाओं का अध्ययन किया तथा स्थानीय भाषा में ईसाई धर्म के प्रचार की सामग्री भी प्रकाशित की।
सन् 1600 ईस्वी में फादर एंटोनियो दी आन्द्रे भारत आये तथा उन्होंने आगरा को धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया। वैसे उत्तर भारत में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां उसके भी पहले शुरु हो चुकी थीं।
सत्रहवीं तथा अट्ठारवीं शताब्दी में यूरोप के अनेक स्थानों से ईसाई मिशनरी भारत आये। उनका व्यापार भी बढ़ता गया और धर्म प्रचार भी।
लूथर मतावलम्बी 1706 के बाद बाद आये जिनमें बार्थन जीगनवाला और हेनरी प्लुचु डेनमार्क के राजा के प्रोत्साहन पर आये थे और तंजोर में अपने धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया था।
1793 में विलियम कैरे भारत आये थे तथा 1799 में टीपू सुल्तान के राज का पतन हुआ था। ये दो बड़ी घटनाएं थीं। उसके बाद तो मिशनरी सोसाइटियों की बाढ़ सी आ गयी। भारत में प्रोटेस्टेंट ईसाई सम्प्रदाय का धर्म प्रचार उसके बाद प्रारम्भ हुआ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत में प्रभुत्व बढने के साथ ही और भी ईसाई मिशनरी भारत में आये। भारत में विरोध के कारण शुरु में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी उनमें से कई का विरोध किया था परन्तु कैरे और उनके साथियों मार्शमैन तथा वार्ड के ने कलकत्ता से लगभग 15 मील दूर श्रीरामपुर में अपने धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया था। फिर कुछ समय बीतने के बाद जैसे जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी का विस्तार बंगाल के बाहर गंगा की घाटियों से सटे राज्यों की ओर होता गया, वैसे वैसे ईसाई मिशनरी भी अपना काम का विस्तार करते गये। परन्तु मिशनरियों पर से पूरा प्रतिबंध 1833 में विल्बफोर्स एक्ट के ब्रिटिश संसद में पारित हो जाने के बाद हट गया। उसके बाद अनेक मिशनरी भारत आकर धर्म प्रचार के काम में जोर-शोर से लग गये।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक तो समस्त हिन्दी भाषी राज्यों में ईसाई मिशनरियां विस्तार पा चुकी थीं।
भारत की अनेक भाषाओं में बाइबल का अनुवाद और धर्म प्रचार सामग्री छपे। कलकत्ता बाइबल सोसाइटी का गठन हुआ और फिर नॉर्थ इंडिया बाइबल सोसाइटी भी गठित हुई। दोनों ने भाषा को सरल बनाकर जनता के समझने लायक बनाया। उन्हें खंडन-मंडन, उपदेश, आराधना और भजन आदि की पुस्तकें भी प्रकाशित कीं।
आज भारत के लगभग हर भूभाग में ईसाई मिशनरियां सक्रिय हैं।
उनका धर्म प्रचार का काम सामाजिक और शैक्षणिक कार्यों की आड़ में चलता है। वे अनेकानेक तरीके अपनाकर धर्म प्रचार और धर्मान्तरण कराते हैं।
अनेक स्थानों पर उनके द्वारा किये जाने वाले धर्मान्तरण का विरोध हुआ तथा कई राज्यों को धर्मान्तरण विरोधी कानून भी बनाने पड़े हैं।