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मन

मन किसी व्यक्ति मे स्थित वह द्रव्य है जो एक ही काल में दो पदार्थों का ग्रहण नहीं करता या उसे ज्ञान नहीं होता।

मन अन्तःकरण की एक अवस्था है जो अहंकार की अनुभूति के बाद आता है। अहंकार की अनुभूति के बाद व्यक्ति में इच्छा यहीं आकर जागृत होती है। इस इच्छा की तृप्ति के लिए मन इन्द्रियों की सहायता लेता है और उसी में आनन्द प्राप्त करता है। इसी आनन्द को प्राप्त करना इसका मूल भी है और इसका लक्ष्य भी। मन रजोगुण प्रधान है तथा तम और सत्व गुण भी विद्यमान रहते हैं। यही कारण है कि मन को अच्छे और बुरे का ज्ञान रहने पर भी वह अच्छे को ही अपनाये यह आवश्यक नहीं। आनन्द के लिए यह अच्छा और बुरा दोनों तरह का कार्य समय आने पर कर सकता है।

वेदान्त और सांख्य ने मन के तीन कार्य बताये हैं - अवधान (आलोचन), चयन और समन्वय।

मैं अमुक हूं, का भाव इसी मन में उत्पन्न होता है, और यही सुख-दुख तथा जीवात्मा का ज्ञान कराने वाला है, जैसा कि वैशेषिक मानते हैं।

मन के बिना इन्द्रियां अपने कार्य नहीं कर सकतीं। आंखें खुली रहने पर भी कई बार हम चीजों को नहीं देख पाते, कान खुले रहने पर भी नहीं सुन पाते, क्योंकि मन तो कहीं और है। मन संकल्प-विकल्प में लीन रहता है तथा सुख-दुख का अनुभव करता है। परन्तु इसकी शक्ति स्वतंत्र नहीं है, बल्कि बुद्धि और अहंकार के साथ मिलकर यह अपना कार्य-व्यापार चलाता है।

मन रजोगुण प्रधान है परन्तु तम से ढके होने के कारण इसके तामसिक कार्यों में संलग्न रहने की ही सम्भावना अधिक रहती है, तथा यह अहंकेन्द्रित हो जाता है।

कठोपनिषद के अनुसार यही मन लगाम है, इन्द्रियां घोड़े, बुद्धि सारथी तथा जीवात्मा भोक्ता है।

सिद्ध सिद्धान्त के अनुसार मन के धर्म हैं - संकल्प, विकल्प, जड़ता, मूर्च्छना और मनन।


Page last modified on Friday March 14, 2014 09:23:53 GMT-0000