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गण छठा कूट है तथा इसके लिए छह अंक निर्धारित हैं।

सभी 27 नक्षत्रों को तीन गणों में बांटा गया है। ये गण हैं - देवता, मनुष्य तथा राक्षस। अवक् होड़ा चक्र से कोई भी व्यक्ति अपना गण जान सकता है। श्रेष्ठता में ये तीनों गण क्रमबद्ध आते हैं - अर्थात् देवता के बाद मनुष्य तथा उसके बाद राक्षस।

यदि वर-कन्या दोनों के गण एक हों तो छह अंक दिये जाते हैं। ऐसे दम्पति में परम प्रीति रहती है।

यदि वर देवता हो तथा कन्या मनुष्य, तब भी वर का गण श्रेष्ठ होने से छह गुण दिये जाते हैं।

यदि वर का गण कन्या के गण से नीचे हो गया, उदाहरण के लिए वर मनुष्य हो तथा कन्या देवता, तब वैसी स्थिति में पांच अंक दिये जाते हैं।

इतना सर्वमान्य है। परन्तु वर राक्षस कन्या देवता, कन्या राक्षस वर देवता, वर राक्षस कन्या मनुष्य, वर मनुष्य कन्या राक्षस के मामलों में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं।

मुहूर्त चिन्तामणि के अनुसार वर-कन्या दोनों के परस्पर देव राक्षस होने पर एक अंक दिया जाना चाहिए।

वृहद् ज्योतिष सार में वर राक्षस तथा कन्या मनुष्य होने पर एक अंक दिया गया है परन्तु कन्या राक्षस तथा वर देवता होने पर शून्य अंक निर्धारित किया गया है। वर राक्षस तथा कन्या मनुष्य होने पर भी एक अंक प्रदान किया गया है।

प्रसिद्ध और अति सम्माननीय ऋषिकेश पंचांग में केवल वर राक्षस तथा कन्या देवता का एक गुण लिया गया है जबकि अन्य तीनों योगों में शून्य अंक दिये गये हैं।

कन्या राक्षस तथा वर मनुष्य होने पर सबके मत में शून्य अंक दिये जाने वांछनीय हैं।

इन सभी मतभेदों पर पंडित राम सुन्दर वैद्य की टिप्पणी उनकी पुस्तक वर-वधु मेलापक दर्पण में इस प्रकार है -

“ 1. देवता एवं राक्षस परस्पर विरोधी हैं। देवताओं के पास देव बल एवं राक्षसों को आसुरी बल है। दोनों समान बली हैं। अन्तत: देवबल ही विजयी होता है। परन्तु देवता राक्षसों से भयभीत रहते हैं। राक्षस देवताओं का भय नहीं करते। इसलिए वर राक्षस एवं कन्या देवता होने पर कन्या वर से भयभीत रहती है, पर किसी को खतरा नहीं है। अत: यहां पर एक गुण लेना युक्ति संगत ही है।
2. मनुष्य और राक्षस में विरोध के साथ मनुष्य राक्षसों के भक्ष्य हैं। इससे विरोध तथा मृत्यु का भय बना रहता है। मनुष्य सदा भयभीत रहता है। इसलिए चाहे वर राक्षस कन्या मनुष्य हो या कन्या राक्षस वर मनुष्य हो तो गुण '0' लेना उचित है। सामान्यतया लोग ऐसा समझते हैं कि वर राक्षस कन्या मनुष्य होने पर वर को भय नहीं है इसलिए विवाह कर लेना चाहिए, पर यह न्यायसंगत बात नहीं है। वर या कन्या कोई भी राक्षस या मनुष्य हों, विवाह वर्जित है। परिहार के बिना विवाह न करें।"

इस विचार को भी शामिल कर लेने पर गण विचार चक्र निम्न प्रकार बनता है (वर की राशि के स्वामी ग्रह क्षैतिज तथा कन्या के उर्ध्वाधर दिये गये हैं) -

गणदेवमनुष्यराक्षस
देव651
मनुष्य660
राक्षस006



गण दोष होने पर ग्रह मैत्री देखना चाहिए। यदि ग्रह मैत्री बनती हो तो इस दोष का परिहार हो जाता है।
राशि स्वामी या अंशनाथ दोनों में से एक की भी मित्रता होने पर गण दोष प्रभावी नहीं रह जाता।

एकाधिपत्य, सम सप्तक या दोनों की राशि या राशीश का एक होना, एक की राशि से दूसरे की राशि सातवें स्थान पर होने, या तीन, ग्यारह, चौथे एवं दशम होने से भी गण दोष प्रभावी नहीं रह जाता।


Page last modified on Sunday April 7, 2013 06:50:28 GMT-0000