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तीसरा कूट है तारा तथा इसके तीन गुण अर्थात् तीन अंक हुए। इसका विचारण वर-वधु के पारस्परिक सम्बंधों की जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यही कारण है कि अनेक विद्वान इसे अत्यधिक महत्व देते हैं। तारों की संख्या नौ है जो क्रमवार निम्न प्रकार हैं -
1. जन्म
2. सम्पत्त
3. विपत्त
4. क्षेम
5. प्रत्यरी
6. सन्मान
7. वध
8. साध्य, तथा
9. सिद्ध
इन तारों में विपत्त, प्रत्यरी एवं वध ही अशुभ तारे हैं। अन्य सभी तारों को शुभ माना जाता है।

जब वर-कन्या दोनों के तारे शुभ हों तो तीन अंक देने चाहिए। परन्तु यदि एक का शुभ एवं दूसरे का अशुभ हो तो केवल डेढ़ अंक दिये जाते हैं। यदि दोनों के तारे अशुभ हों तो ऐसी जोड़ी के लिए दिया जाने वाला अंक शून्य होता है।

अपना तारा ज्ञात करने के लिए आवश्यक है कि जन्म के समय के नक्षत्रों की दूरी जाना जाये। इन दूरी की संख्या जितनी होगी उसमें नौ से भाग देने पर जो शेष बचता है उस संख्या को अपना तारा जानें। इस विधि से वर तथा कन्या दोनों अपने अपने तारे जान सकते हैं। नौ से भाग देने पर नौ की संख्या शेष तब माना जाता है जब वास्तव में शेष शून्य हो।

यहां नक्षत्रों को क्रमवार लिखा जा रहा है जिससे कि नक्षत्रों की दूरी जाना जा सके।
1. अश्विनी
2. भरणी
3. कृत्तिका
4. रोहिणी
5. मृगशिरा
6. आर्द्रा
7. पुनर्वसु
8. पुष्य
9. अश्लेषा
10. मघा
11. पूर्वाफाल्गुनी
12. उत्तराफाल्गुनी
13. हस्त
14. चित्रा
15. स्वाती
16. विशाखा
17. अनुराधा
18. ज्येष्ठा
19. मूल
20. पूर्वाषाढ (अभिजित् नक्षत्र को एक अन्य नक्षत्र माना जाता था परन्तु इसे अब पूर्वाषाढ़ के अन्नतर्गत ही गिन लिया जाता है)
21. उत्तराषाढ
22. श्रवण
23. धनिष्ठा
24. शतभिषा
25. पूर्वभाद्रपद
26. उत्तरभाद्रपद
27. रेवती
गिनती क्रमवार करना चाहिए इस तरह 27 के बाद 1 से।

यदि तारा गुण विचार में अंक शून्य आये तो दोष माना जाता है। परन्तु यदि कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक की संख्या गिनने पर 13 से अधिक आये तो इस दोष का परिहार हो जाता है।

इस तारा दोष का परिहार ग्रह मैत्री का गुण मिलने पर या सद्भकूट होने पर भी हो जाता है।



Page last modified on Sunday April 7, 2013 06:17:53 GMT-0000