संसार के सभी मानवों को चार वर्णों में बांटा गया है। ये चार वर्ण हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। ध्यान रहे कि इन वर्णों का कोई भी संबंध जाति, धर्म, देश आदि से नहीं है।
श्रीमद् भगवद् गीता में श्री कृष्ण कहते हैं -
चातुर्वर्ण्यं मया श्रृष्टं गुण कर्म विभागश:। अर्थात् गुण और कर्म के अनुसार ही भगवान ने सभी मानवों को केवल चार वर्णों में वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण भारत में प्रचलित जाति व्यवस्था से भिन्न है। इस वर्ण व्यवस्था का आधार केवल गुण और कर्म है।
वर्ण को सबसे कम केवल एक अंक दिया गया है जबकि अन्य गुणों को उनके क्रमांक के अनुसार अधिक अंक दिये गये हैं। यदि वर्ण मिल गया तो जातक को केवल एक अंक दिये जाते हैं। परन्तु किसी व्यक्ति का वर्ण कैसे ज्ञात होता है? इस प्रश्न का उत्तर जानना सरल है।
सर्व प्रथम अपना राशि ज्ञात करें। आपके जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि पर होते हैं वह आपकी राशि है। यह राशि चन्द्र राशि कहलाती है। उसी तरह सूर्य राशि भी होती है - अर्थात् सूर्य जिस राशि पर हो वह राशि।
राशियों के नाम और संख्या निम्न प्रकार हैं -
1. मेष
2. वृष
3 . मिथुन
4. कर्क
5. सिंह
6. कन्या
7. तुला
8. वृश्चिक
9. धनु
10. मकर
11. कुम्भ
12. मीन
यदि 4, 8, 12 वीं राशियां हों तो वर्ण ब्राह्मण
यदि 1, 5, 9 वीं राशियां हों तो वर्ण क्षत्रिय
यदि 2, 6, 10 वीं राशियां हों तो वर्ण वैश्य
यदि 3, 7, 11 वीं राशियां हों तो वर्ण शूद्र होता है।
अनेक विद्वानों द्वारा एक अन्य प्रक्रिया अपनायी जाती है जो राशियों के स्वामी ग्रहों के वर्ण बोधक चक्र से भी प्राप्त किया जाता है।
इस प्रकार राशि 1 तथा 8 के अधिपति हैं मंगल जिनका वर्ण है क्षत्रिय
2 तथा 7 के अधिपति हैं शुक्र जिनका वर्ण है ब्राह्मण
3 तथा 6 के अधिपति हैं बुध जिनका वर्ण है वैश्य
4 के अधिपति हैं चन्द्र जिनका वर्ण है वैश्य
5 के अधिपति हैं सूर्य जिनका वर्ण है क्षत्रिय
9 तथा 12 के अधिपति हैं गुरु जिनका वर्ण है ब्राह्मण
10 तथा 11 के अधिपति हैं शनि जिनका वर्ण है शूद्र
यहां दोनों पद्धतियों पर ध्यान देने से स्पष्ट है कि वर्णों में कुछ अन्तर है। यदि किसी जातक के मामले में ऐसा अन्तर दृष्टिगोचर होता है तो -
यदि राशि से निकाले गये वर्ण का क्रमांक (1. ब्राह्मण, 2. क्षत्रिय, 3. वैश्य तथा 4. शूद्र) अधिक हो तथा राशि के अधिपति ग्रह के अनुसार निकाले गये वर्ण का क्रमांक कम हो तो वैसी स्थिति में राशीश्वर या राशि के अधिपति के वर्ण को ही जातक का वर्ण मानकर विचार करना चाहिए।
अब वर-वधु के वर्ण का मिलान करें। वर-वधु के वर्ण एक ही होने अथवा वर का वर्ण कन्या के वर्ण के क्रमानुसार (1. ब्राह्मण, 2. क्षत्रिय, 3. वैश्य तथा 4. शूद्र) पहले आने पर प्राप्त गुणांक या गुण एक मानें, अन्यथा शून्य मानें।
अब कृपया इसके फल देखें -
समान वर्ण होने पर परस्पर श्रद्धा बनी रहती है।
वर का वर्ण कन्या के वर्ण से क्रमानुसार पहले आये तो विवाह शुभद होता है, क्योंकि कन्या हमेशा अपने पूर्ववर्ती वर्ण से श्रद्धा-भक्ति रखती है। इसके परिणाम स्वरुप वर भी वधु को लगातार सम्मान देने के लिए मनोवैज्ञानिक रुप से वाध्य रहता है।
यदि कन्या का वर्ण वर के वर्ण से क्रमानुसार पहले आता हो तो ऐसी वधु की अपने पति के साथ श्रद्धा-भक्ति अनेकानेक कारणों से नहीं रह पाती। इसलिए ऐसे विवाह को दोषपूर्ण माना जाता है।
विशेष - क्षत्रिय वर्ण के जातक के लिए वर्ण दोष विशेष रुप से चिंतनीय है। यदि इसका परिहार नहीं हो पाता है तो ऐसा विवाह वर्जित है।
परिहार राशीश्वर के वर्ण के आधार पर गणना करने पर संभव है। यदि ग्रह मैत्री बनती हो तो सभी दोषों का परिहार हो जाता है। यदि कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र की संख्या गिनी जाये तथा वह 13 से अधिक हो तो भी इस दोष का परिहार होता है।
किसी भी संशय की स्थिति में किसी सक्षम विद्वान से संपर्क करें।
श्रीमद् भगवद् गीता में श्री कृष्ण कहते हैं -
चातुर्वर्ण्यं मया श्रृष्टं गुण कर्म विभागश:। अर्थात् गुण और कर्म के अनुसार ही भगवान ने सभी मानवों को केवल चार वर्णों में वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण भारत में प्रचलित जाति व्यवस्था से भिन्न है। इस वर्ण व्यवस्था का आधार केवल गुण और कर्म है।
वर्ण को सबसे कम केवल एक अंक दिया गया है जबकि अन्य गुणों को उनके क्रमांक के अनुसार अधिक अंक दिये गये हैं। यदि वर्ण मिल गया तो जातक को केवल एक अंक दिये जाते हैं। परन्तु किसी व्यक्ति का वर्ण कैसे ज्ञात होता है? इस प्रश्न का उत्तर जानना सरल है।
सर्व प्रथम अपना राशि ज्ञात करें। आपके जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि पर होते हैं वह आपकी राशि है। यह राशि चन्द्र राशि कहलाती है। उसी तरह सूर्य राशि भी होती है - अर्थात् सूर्य जिस राशि पर हो वह राशि।
राशियों के नाम और संख्या निम्न प्रकार हैं -
1. मेष
2. वृष
3 . मिथुन
4. कर्क
5. सिंह
6. कन्या
7. तुला
8. वृश्चिक
9. धनु
10. मकर
11. कुम्भ
12. मीन
यदि 4, 8, 12 वीं राशियां हों तो वर्ण ब्राह्मण
यदि 1, 5, 9 वीं राशियां हों तो वर्ण क्षत्रिय
यदि 2, 6, 10 वीं राशियां हों तो वर्ण वैश्य
यदि 3, 7, 11 वीं राशियां हों तो वर्ण शूद्र होता है।
अनेक विद्वानों द्वारा एक अन्य प्रक्रिया अपनायी जाती है जो राशियों के स्वामी ग्रहों के वर्ण बोधक चक्र से भी प्राप्त किया जाता है।
इस प्रकार राशि 1 तथा 8 के अधिपति हैं मंगल जिनका वर्ण है क्षत्रिय
2 तथा 7 के अधिपति हैं शुक्र जिनका वर्ण है ब्राह्मण
3 तथा 6 के अधिपति हैं बुध जिनका वर्ण है वैश्य
4 के अधिपति हैं चन्द्र जिनका वर्ण है वैश्य
5 के अधिपति हैं सूर्य जिनका वर्ण है क्षत्रिय
9 तथा 12 के अधिपति हैं गुरु जिनका वर्ण है ब्राह्मण
10 तथा 11 के अधिपति हैं शनि जिनका वर्ण है शूद्र
यहां दोनों पद्धतियों पर ध्यान देने से स्पष्ट है कि वर्णों में कुछ अन्तर है। यदि किसी जातक के मामले में ऐसा अन्तर दृष्टिगोचर होता है तो -
यदि राशि से निकाले गये वर्ण का क्रमांक (1. ब्राह्मण, 2. क्षत्रिय, 3. वैश्य तथा 4. शूद्र) अधिक हो तथा राशि के अधिपति ग्रह के अनुसार निकाले गये वर्ण का क्रमांक कम हो तो वैसी स्थिति में राशीश्वर या राशि के अधिपति के वर्ण को ही जातक का वर्ण मानकर विचार करना चाहिए।
अब वर-वधु के वर्ण का मिलान करें। वर-वधु के वर्ण एक ही होने अथवा वर का वर्ण कन्या के वर्ण के क्रमानुसार (1. ब्राह्मण, 2. क्षत्रिय, 3. वैश्य तथा 4. शूद्र) पहले आने पर प्राप्त गुणांक या गुण एक मानें, अन्यथा शून्य मानें।
अब कृपया इसके फल देखें -
समान वर्ण होने पर परस्पर श्रद्धा बनी रहती है।
वर का वर्ण कन्या के वर्ण से क्रमानुसार पहले आये तो विवाह शुभद होता है, क्योंकि कन्या हमेशा अपने पूर्ववर्ती वर्ण से श्रद्धा-भक्ति रखती है। इसके परिणाम स्वरुप वर भी वधु को लगातार सम्मान देने के लिए मनोवैज्ञानिक रुप से वाध्य रहता है।
यदि कन्या का वर्ण वर के वर्ण से क्रमानुसार पहले आता हो तो ऐसी वधु की अपने पति के साथ श्रद्धा-भक्ति अनेकानेक कारणों से नहीं रह पाती। इसलिए ऐसे विवाह को दोषपूर्ण माना जाता है।
विशेष - क्षत्रिय वर्ण के जातक के लिए वर्ण दोष विशेष रुप से चिंतनीय है। यदि इसका परिहार नहीं हो पाता है तो ऐसा विवाह वर्जित है।
परिहार राशीश्वर के वर्ण के आधार पर गणना करने पर संभव है। यदि ग्रह मैत्री बनती हो तो सभी दोषों का परिहार हो जाता है। यदि कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र की संख्या गिनी जाये तथा वह 13 से अधिक हो तो भी इस दोष का परिहार होता है।
किसी भी संशय की स्थिति में किसी सक्षम विद्वान से संपर्क करें।