वर- वधु मेलापक गणना के अष्टकूट विचार के समय वर्ण के बाद क्रमानुसार दूसरे स्थान पर आने वाले वश्य का विचार किया जाता है। ध्यान रहे कि वश्य वर्ण के वैश्य से अलग गुण है। इसे दो अंक दिये गये हैं। यदि वश्य मिलान हुआ तो एक वश्य के लिए दो अंक, सम वश्य के लिए एक, समशत्रु के लिए आधा तथा अधिशत्रु के लिए शून्य अंक दिये जाते हैं। वश्य विचार का मूल उद्देश्य यह जानना है कि वर और कन्या में कौन किसके वश में रहेगा। इसी कारण भी इस गुण का नाम वश्य पड़ा। सभी वश्यों के परस्पर सम्बंध होते हैं जिनके आधार पर अंक दिये जाते हैं।
ये वश्य पांच प्रकार के होते हैं -
1. चतुष्पद
2. मानव
3. जलचर
4. वनचर, तथा
5. कीट
एक ही वश्य हो तो एक वश्य कहते हैं। जैसे यदि वर और कन्या दोनों चतुष्पद हुए तो दोनों एक वश्य के माने जायेंगे। मानव – मानव, जलचर – जलचर, वनचर-वनचर, एवं कीट-कीट के साथ एक वश्य सम्बंध होने के कारण दो अंक दिये जाते हैं।
सम वश्य सम्बंध पारस्परिक अधीनता या स्वामित्व का बोधक है। चतुष्पद् के साथ मानव, जलचर एवं कीट का, मानव के साथ चतुष्पद तथा कीट का, जलचर के साथ चतुष्पद, वनचर एवं कीट का, वनचर के साथ जलचर का, तथा कीट के साथ चतुष्पद, मानव, तथा जलचर सम वश्य सम्बंध होते हैं। इन्हें एक अंक दिये जाते हैं।
समशत्रु सम्बंध पारस्परिक शत्रुता का बोधक है। मानव के साथ जलचर का समशत्रु सम्बंध होता है इसलिए इन्हें केवल आधे अंक ही दिये जाते हैं।
अधिशत्रु सम्बंध तो भक्ष्य-भक्षक का सम्बंध है। ऐसे वर-कन्या के बीच प्रीति विपरीतता की होती है। वनचर तथा चतुष्पद में, वनचर तथा मानव में, एवं वनचर तथा कीट में अधिशत्रु सम्बंध होता है इसलिए इन्हें शून्य अंक दिये जाते हैं।
सिंह को छोड़कर सभी मनुष्य के अधीन रहते हैं।
अपना वश्य जानने के लिए अवकहोड़ा चक्र देखना चाहिए जो आसान है। उसमें आप अपनी राशि देखें तथा उसके अनुसार अपना वश्य जानें। इसमें थोड़ी परेशानी भी होती है क्योंकि कई बार एक ही राशि में दो वश्य होते हैं। वैसी स्थिति में आपका अपना वश्य कौन सा है वह राशि की गणना से ही प्राप्त होता है। अत: किसी योग्य विद्वान से गणना कराकर ही अपना सही वश्य जानें तो अच्छा होगा।
वर-वधु मिलान में देखा यह जाता है कि वर का वश्य कन्या के वश्य से बलशाली हो। वश्य दोष तब होता है जब वश्य मिलान का प्राप्तांक शून्य हो।
यदि ऐसा हुआ तो इसका परिहार योनि शुद्धि, गह मैत्री के गुण तथा सद् भकुट से होता है। वर-कन्या की तारा के परस्पर शुभ होने पर वश्य दोष का परिहार हो जाता है।
ये वश्य पांच प्रकार के होते हैं -
1. चतुष्पद
2. मानव
3. जलचर
4. वनचर, तथा
5. कीट
एक ही वश्य हो तो एक वश्य कहते हैं। जैसे यदि वर और कन्या दोनों चतुष्पद हुए तो दोनों एक वश्य के माने जायेंगे। मानव – मानव, जलचर – जलचर, वनचर-वनचर, एवं कीट-कीट के साथ एक वश्य सम्बंध होने के कारण दो अंक दिये जाते हैं।
सम वश्य सम्बंध पारस्परिक अधीनता या स्वामित्व का बोधक है। चतुष्पद् के साथ मानव, जलचर एवं कीट का, मानव के साथ चतुष्पद तथा कीट का, जलचर के साथ चतुष्पद, वनचर एवं कीट का, वनचर के साथ जलचर का, तथा कीट के साथ चतुष्पद, मानव, तथा जलचर सम वश्य सम्बंध होते हैं। इन्हें एक अंक दिये जाते हैं।
समशत्रु सम्बंध पारस्परिक शत्रुता का बोधक है। मानव के साथ जलचर का समशत्रु सम्बंध होता है इसलिए इन्हें केवल आधे अंक ही दिये जाते हैं।
अधिशत्रु सम्बंध तो भक्ष्य-भक्षक का सम्बंध है। ऐसे वर-कन्या के बीच प्रीति विपरीतता की होती है। वनचर तथा चतुष्पद में, वनचर तथा मानव में, एवं वनचर तथा कीट में अधिशत्रु सम्बंध होता है इसलिए इन्हें शून्य अंक दिये जाते हैं।
सिंह को छोड़कर सभी मनुष्य के अधीन रहते हैं।
अपना वश्य जानने के लिए अवकहोड़ा चक्र देखना चाहिए जो आसान है। उसमें आप अपनी राशि देखें तथा उसके अनुसार अपना वश्य जानें। इसमें थोड़ी परेशानी भी होती है क्योंकि कई बार एक ही राशि में दो वश्य होते हैं। वैसी स्थिति में आपका अपना वश्य कौन सा है वह राशि की गणना से ही प्राप्त होता है। अत: किसी योग्य विद्वान से गणना कराकर ही अपना सही वश्य जानें तो अच्छा होगा।
वर-वधु मिलान में देखा यह जाता है कि वर का वश्य कन्या के वश्य से बलशाली हो। वश्य दोष तब होता है जब वश्य मिलान का प्राप्तांक शून्य हो।
यदि ऐसा हुआ तो इसका परिहार योनि शुद्धि, गह मैत्री के गुण तथा सद् भकुट से होता है। वर-कन्या की तारा के परस्पर शुभ होने पर वश्य दोष का परिहार हो जाता है।