हैजा
हैजा दुषित जल के पीने से होने वाला रोग है। चिकित्साशास्त्र में इसे अतिभोजन से भी प्रारम्भ होने वाले रोगों की श्रेणी में रखा गया है। इसका प्रकोप प्रायः अत्यन्त गर्मी तथा वर्षा के प्रारम्भिक काल में देखा गया है। अपच से प्रारम्भ होने वाली हैजा को आयुर्वेद स्वीकारता है परन्तु आधुनिक चिकित्सक इसे दूषित जल में रहने वाले एक विशेष कीटाणु से होना ही मानते हैं।इस प्रकार हैजा दो प्रकार के माने जा सकते हैं - अपच जन्य तथा कीटाणुजन्य। कीटाणुजन्य हैजा अपच जन्य हैजा से अधिक घातक तथा संकामक होती है। एक तीसरे प्रकार का भी हैजा होता है जिसे सूखी हैजा अथवा अलसक कहते हैं।
कीटाणु जन्य हैजा अतिसंक्रामक है तथा तेजी से फैलती है। रोगी की इसमें तत्काल चिकित्सा की आवश्यकता होती है। यदि ऐसा न किया गया तो रोगी की छह से 10 घंटे के बीच मृत्यु तक हो सकती है। इसमें रोगी को बारम्बार दस्त तथा उल्टियां होती हैं तथा उसके लिए रोगी को जोर नहीं लगाना पड़ता। शरीर की उष्णता तेजी से कम होने लगती है तथा एक-दो बार के पखाने तथा उल्टियों से ही रोगी अत्यंत निर्बल हो जाता है।
देखा गया है कि कीटाणुजन्य हैजा अधिकांश लोगों को रात्रि के तीसरे प्रहर से आरम्भ होता है।
सूखी हैजा या अलसक में उल्टी तथा दस्त नहीं होते। इसमें रोगी को पेट में अत्यधिक दर्द, पेशाब न होना, प्यास, कमजोरी, हाथ-पैरों में ऐंठन, पेट फुलना आदि लक्षण प्रकट होते हैं। यह हैजा भी कीटाणुजन्य हैजे की भांति अत्यंत घातक होती है।
हैजा से बचाव का सबसे अच्छा उपाय तो शुद्ध पेयजल का उपयोग करना ही है। पानी उबालकर उसे पीने योग्य ठंडा कर स्वच्छ बर्तन में ही पीना चाहिए। हैजे से बचने के लिए टीकाकरण भी होता है। जहां हैजा फैला हो वहां आहार-विहार की अतिरिक्त स्वच्छता की आवश्यकता होती है।
रोगी के शरीर में पानी तथा खनिज लवणों की मात्रा समुचित रखने के लिए उपाय करनी चाहिए। आजकल ओआरएस बाजार में उपलब्ध रहता है जिसका घोल पिलाने से इस उद्देश्य की पूर्ति होती है। जहां यह उपलब्ध न हो वहां एक चम्मच चीनी में एक चुटकी नमक जल में डालकर उसका घोल बनाकर रोगी को पिलाते रहना चाहिए।
ये प्रथमिक उपाय करते हुए यथाशीघ्र रोगी को चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए।