संपूर्ण इतिहास में भारत के सम्राटों और महाराजाओं के आभूषण दरबारी-समाज और उनके विश्वस्त परिवार के बाहर वस्तुतः अज्ञात थे। योरोपीय और रूसी राजपरिवारों के रत्नजड़ित आभूषणों का जहां प्रलेखन, कालानुक्रम से अभिलेखन और रत्न-शास्त्रियों द्वारा अध्ययन किया गया है वहीं भारत के राजाओं के रत्नजड़ित आभूषण उनके महलों के खजाने में ही बंद पड़े थे। वे राजकीय अवसरों पर ही पहने जाते थे और कुछ विशेष व्यक्ति ही उन्हें देख सकते थे।
यद्यपि निजामों का शासन दक्कन पर था तथापि उन्होंने मुगलों की जीवन शैली, दरबारी परंपराओं और प्रशासन-पद्धति का अनुसरण किया। सम्राज्य की नीतियों के संबंध में भी उन्होंने मुगलों द्वारा स्थापित संहिताओं को अपनाया। संपत्ति की महत्ता और खजाने के मूल्य को समझना उन्हें बहुत छोटी उम्र में ही आ गया था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे पुनरावृत्त किया गया।
1972 में आभूषण जगत में इस समाचार से एक हलचल सी पैदा हुई कि हैदराबाद के निजाम के रत्नजड़ित आभूषण जिन्हें सर्वाधिक अद्वितीय संकलनों में से एक माना जाता है भारत सरकार को विक्रय हेतु प्रस्तुत किए गए थे। उसके 23 वर्षों के पश्चात ही एक लंबे नाटक के बाद अंततः 1995 में इस आभूषण संकलन का अर्जन कर लिया गया। इसकी मुकदमेंबाजी में अत्यधिक खर्च हुआ।
18 सितंबर, 1948 को हैदराबाद राज्य को भारत संघ समाविष्ट कर लिया गया और इस प्रकार राष्ट्र में राजसी प्रदेशों के समाकलन की प्रक्रिया पूर्ण हो गई। निजाम मीर उस्मान अली खान और भारत सरकार के मध्य हैदराबाद के विलय से संबंधित वाद-विषय पर वार्ता जनवरी 1950 तक चलती रही जिसके पश्चात महामान्य हैदराबाद के निजाम के अधिकारों, विशेषाधिकारों और पदवी, राजकुल संबंधी उत्तराधिकारिता और निजी कोष से संबंधित औपचारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए।
हैदराबाद के समाकलन के पश्चात भारत सरकार द्वारा की गई एक पहल थी- निजाम के सर्फ-ए-खास परंपरागत उत्तराधिकार के द्वारा प्राप्त पैतृक भूमि, जिसकी आय का उपयोग राजवंश की गरिमा को बनाए रखने के लिए किया जाता थाद्ध को अपने अधीन करना। इन भूमियों से निजाम को प्रतिवर्ष रु. 124 लाख की आय होती थी। इस हानि के लिए उन्हें उनके निजी कोष के रु. 50 लाख के अतिरिक्त उनके पूरे जीवन काल में रु. 50 लाख का वार्षिक भत्ता भी प्राप्त हुआ। निजाम के दरबार की स्थिति अच्छी नहीं थी। 1955 में मीर उस्मान अली खान का एक बड़ा कुटुम्ब था और उनके 1000 से भी अधिक नौकर-चाकर थे।
जब यह स्पष्ट हो गया कि परिस्थितियां फिर से वैसी ही नहीं रहेंगी तो दूरदर्शी उस्मान अली खान ने अपनी पैतृक संपत्ति तथा अपने उत्तराधिकारियों एवं अनेक निर्भर व्यक्तियों के अनिश्चित भविष्य को सुरक्षित करने का कार्य आरंभ किया। निजाम ने अपनी वृहद संपदा के एक भाग को समाप्त कर उसे अनेक न्यासों में आवंटित कर दिया ताकि इस उद्देश्य की प्राप्ति हो सके। इनमें सर्वाधिक अद्वितीय न्यास था ‘एच.ई.एच.द. निजाम्स ज्वैलरी ट्रस्ट’ जिसे 29 मार्च 1951 को स्थापित किया गया था। यह किसी भी भारतीय शासक द्वारा स्थापित किया गया इस प्रकार का पहला ऐसा न्यास था।
इस न्यास को उस्मान अली खान ने 107 वस्तुएं सौंपी थीं जिसमें राजकीय अवसरों पर पहने जाने वाले आभूषणों सहित उनके निजी रत्नजड़ित आभूषण भी थे। अपने वंशजों को उपहार देने के पश्चात उन्होंने एच.ई.एच द निजाम्स सप्लीमेंट ज्वैलरी ट्रस्ट भी बनाया जिसे 28 फरवरी 1952 को संस्थापित किया गया था। सरकारी वस्तु सूची के अनुसार वर्तमान संकलन में इन दोनों ट्रस्टों से कुल 173 वस्तुएं हैं तथापि ;जोड़ों और आभूषणों के समूह को ध्यान में रखते हुए वस्तुओं की वास्तविक संख्या 325 है। इनमें 22 अजड़ित पन्ने और जैकब डायमंड सम्मिलित नहीं हैं। संकलन में सरपेच, कंठहार, कर्णाभूषण, बाजूबंद, कंगन, पेटियां, बटन और कफलिंक, पाजेब, घड़ी की चेन और अंगूठियां हैं- ये सभी रत्नजड़ित आभूषण कभी हैदराबाद के निजामों उनकी बेगमों और बच्चों द्वारा पहने गए थे।
आसफ जाह राजवंश हैदराबाद के निजाम का जिससे संबंध था की वंश परंपरा मीर कमरुद्दीन ;निजाम उल मुल्क फतेह जंग, आसफ जाह प्रथमद्ध तक जाती है। वे मुगल बादशाह औरंगजेब के कृपापात्र थे। उन्होंने औरंगजेब के अधीन अनेक अभियानों में भाग लिया था। 1713 में उन्हें दक्कन मुगल साम्राज्य का सर्वाधिक समृद्ध प्रांतद्ध का वायसराय नियुक्त किया गया।
उनकी मृत्यु के समय तक निजाम राज्य पश्चिमी तट के किनारे पतली-सी-पट्टी के अतिरिक्त ;जहां मराठों का प्रभुत्व थाद्ध ताप्ती नदी के दक्षिण में समस्त पठारी भाग तक फैला हुआ था। यह मदुरई और त्रिचिनापल्ली तक और गोलकुंडा की हीरों की खदानों को घेरे हुए था और समस्त पूर्वी तट तक फैला हुआ था।
यद्यपि निजामों का शासन दक्कन पर था तथापि उन्होंने मुगलों की जीवन शैली, दरबारी परंपराओं और प्रशासन-पद्धति का अनुसरण किया। सम्राज्य की नीतियों के संबंध में भी उन्होंने मुगलों द्वारा स्थापित संहिताओं को अपनाया। संपत्ति की महत्ता और खजाने के मूल्य को समझना उन्हें बहुत छोटी उम्र में ही आ गया था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे पुनरावृत्त किया गया। प्रत्येक निजाम ने आसफ जाह खजाने को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इस लक्ष्य की प्राप्ति में उन्हें उस पुरानी निषेधाज्ञा ने सहयोग दिया कि खदान से निकाले गए सर्वोत्कृष्ट रत्न शासक को ही दिए जाने चाहिए। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भी गोलकुंडा की खदानों में अच्छी गुणवत्ता के रत्न पाए जाते थे जिन्होंने हैदराबाद के खजाने को और भी समृद्ध कर दिया। भारत अभी भी बर्मा के माणिक्यों और लालड़ी, कोलंबियाई पन्नों और बसरा के मोतियों का मुख्य बाजार था। मुगलों के अनौपचारिक उत्तराधिकारियों के रूप में निजाम निस्संदेह उत्कृष्ट रत्नों के सबसे बड़े खरीददार थे। असाफ जाह के दरबार में विके्रताओं का तांता लगा रहता था।
नजराना की पुरानी रस्म, जिसमें शासक और उसके परिवार को वफादारी की अभिव्यक्ति के रूप में स्वर्ण, रत्न और रत्नजड़ित आभूषणों के उपहार दिए जाते थे,को निजामों ने भी जारी रखा। उपहारों के आकार और उनके मूल्य के बारे में अमीरों और जागीरदारों में होड़ लगी रहती थी। ये उपहार अधिकतर मूल्यवान रत्न, रत्नजड़ित आभूषण और स्वर्ण होता था।
1748 में पहले निजाम की मृत्यु के समय आसफ जाह का खजाना रत्नों और रत्नजड़ित आभूषणों से परिपूर्ण था जिसे पूर्व दक्कनी राज्यों को संकलित किया गया था। इसी वजह से निजाम का दरबार दिल्ली दरबार के बाद सर्वाधिक वैभवपूर्ण था। किंतु उनके उत्तराधिकारियों के पास न तो उन जैसा उत्साह ही था और न ही उनके जैसी प्रतिभा ही थी। अनेक राजनीतिक रणनीतियों और फिजूलखर्ची वाली राजकीय मौज-मस्ती के लिए प्रदान प्रदान करने के निरंतर खजाना खाली होता रहा।
छठे निजाम के रूप में हैदराबाद की मसनद पर बैठने वाले महबूब अली पाशा के शासन-काल में यह सर्वाधिक स्पष्ट था। उन्होंने अपनी एक ऐसी दुनिया बनाई जो आधी मुगल और आधी ब्रिटिश थी। महबूब की फिलूजखर्ची और उदारता दंतकथा बन गई है। किन्तु उस जमाने में जबकि अन्य भारतीय महाराजाओं में अपने जगमगाते हुए आभूषणों का प्रदर्शन करने में होड़-सी लगी रहती थी, महबूब की सादगी कमाल की थी। वे अत्यधिक राजकीय वसन-भूषण से अलग-थलग रहते थे। वे पश्चिमी परिधान पहनने वाले पहले निजाम थे और बहुधा सूट और इंगलिश शिकारी की पोशाक पहनते थे।
आभूषण न धारण करना संभवतः उनकी निजी पसंद का विषय था क्योंकि इसने उन्हें खजाने के लिए सुन्दर रत्नजड़ित आभूषण और रत्न अर्जित करने से नहीं रोका था। उन्होंने विक्रेता एलेक्जेंडर मैलकम जैकब से इम्पीरियल डायमंड ; जो बाद में जैकब डायमंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ- एन.जे. 95.89 रु में खरीदा। 1891 में इस खरीद के लिए उनके द्वारा किए गए लेन-देन से दांडिक वाद उत्पन्न हुआ और उन्हें एक कमीशन के समक्ष साक्ष्य देने का अपमान सहन करना पड़ा। आसफ जाह राजवंश के सातवें और आखिरी निजाम के रूप में सितंबर 1911 में उनके पुत्र मीर उस्मान अली खान हैदराबाद की मसनद पर बैठे। उनकी वंशावली की पारंपरिक शान-औ-शौकत से उनका राज्याभिषेक हुआ। पीढ़ियों की वित्तीय व्यवस्था और असीम ब्याज के भुगतान से भारग्रस्त आखिरी निजाम का शासन-काल उनके पिता की अतिशयता के बिल्कुल विपरीत था।
इसका मात्र अनुमान ही लगाया जा सकता है कि उस्मान ने उत्तराधिकार में वस्तुतः क्या प्राप्त किया था। इस विषय में अनेक अफवाहें हैं कि उस्मान अली खान ने उत्तराधिकार में स्वर्ण-दण्ड प्राप्त किए थे। कि कोई भी व्यक्ति उनके खजाने तक नहीं पहंुच सकता था, कि वे खजाने की चाबी अपनी बनियान की भीतरी जेब में रखते थे, और कि कोई ऐसा दिन नहीं बीतता था कि वे अपने कुछ रत्नजड़ित आभूषणों को देखकर उनकी प्रशंसा न करते रहे हों।
मीर उस्मान अली खान के शासनकाल के दौरान रत्नजड़ित आभूषण कभी-कभी पहने तो जाते थे किंतु उनका कभी प्रदर्शन नहीं किया गया था। एकमात्र ज्ञात अपवाद 1950 का है जब गजदर लिमिटेड, बंबई की प्रसिद्ध आभूषण फर्म के स्वामी दीनशाह जे. गजदर को उस्मान अली खान द्वारा आसफ जाह के रत्नजड़ित आभूषणों का मूल्य निश्चित करने के लिए हैदराबाद आमंत्रित किया गया। यह कार्य संभवतः अपनी विशाल संपदा को अपने बड़े कुटुंब के अनेक सदस्यों के मध्य बांटने और जिन न्यासों की वे स्थापना कर रहे थे उनमें इन रत्नजड़ित आभूषणों को आबंटित करने के उनके प्रयास का एक भाग था।
भविष्य में आने वाले किसी भी प्रकार के आर्थिक संकट के लिए न्यासों की स्थापना द्वारा मीर उस्मान अली खान ने कार्य निष्पादन की सहज भारतीय पद्धति को दोहराया था। यदि खजाना ऐतिहासिक रूप से साम्राज्य का वित्तीय बचाव था तो न्यास, आसफ जाह राजवंश की नष्ट होती संपत्ति के विरुद्ध
किलेबंदी थे।
भारत सरकार द्वारा अर्जित रत्नजड़ित आभूषणों का संकलन प्रारंभिक 18वीं शताब्दी से प्रारंभिक 20वीं शताब्दी तक का है; इनमें गोलकुंडा की खदानों से प्राप्त हीरे और कोलंबियाई पन्ने प्रचुर मात्रा में हैं इनके अतिरिक्त बर्मा के माणिक्य और लालड़ी तथा बसरा और भारत के पूर्वी तट के परे मन्नार की खाड़ी के मोती भी हैं। ये सभी रत्नजड़ित आभूषण तड़कभड़क हैं किन्तु मूल्यवान रत्नों की चमक-दमक के बीच कुछ विशिष्ट आभूषण अपनी पुरातनता और शिल्पकारिता के कारण अलग से ही दिखाई पड़ते हैं।
आसफ जहां के रत्नजड़ित आभूषणों के अध्ययन हेतु स्रोत इस प्रकार से विद्यमान हैं। इनका उद्गम-स्थान निश्चित रूप से जान पाना लगभग असंभव-सा है। निजाम अपने विशाल प्रदेश में एकान्तवास करते थे और उनका दरबार पूर्ण गोपनीयता से महबूब अली पाशा के राजकीय छाया चित्रकार, लाला दीनदयाल ने ऐसे चित्र खींचे जो रत्नजड़ित आभूषणों का मात्र प्रचलित दृश्य प्रलेखन करते हैं। दुर्लभ अपवादों सहित, यहां तक कि महबूत अली पाशा और उस्मान अली खान के फोटो रूपचित्रों में भी विश्व के सर्वाधिक समृद्ध व्यक्तियों को भड़कीले आभूषणों से रहित दिखाया गया है। इनमें सीधी-सादी घड़ी की चेन, कोट के बटन और कुछ अंगूठियां ही दिखाई देते हैं।
निजाम दक्षिण भारत में विदेशी थे। परिस्थितियां उन्हें ऐसे क्षेत्र में ले आई थीं जिसे उन्होंने अंततः अपना घर बना लिया था। किन्तु लगभग 225 वर्षों तक जबकिक उन्होंने दक्कन की राजनीत पर अपना एकाधिकार बनाए रखा, उनका दरबार उनकी जीवन शैली और संस्कृति, दिल्ली के मुगल दरबार से प्रभावित थी जो स्वदेशी स्थिति से विशिष्टतः भिन्न थी। तथापि, अनेक वस्तुओं में स्थानीय प्रभाव दिखलाई पड़ता है जैसे कि बर्मा के कैबेशोन माणिक्यों से जड़ित बकसुआ, इसमें दक्षिण भारत की केश-अलंकरण शैली में हीरे जड़ित हैं। लटकनों से युक्त हीरे और पन्ने के ल्रंबे में उत्तर और दक्षिण का सम्मिश्रण दिखलाई पड़ता है। ये दक्षिण भारतीय मकरक्रान्ति शैली में निर्मित हैं और रजत में जड़ित रत्नों और पृष्ठ भाग पर मीनाकारी से युक्त हैं। इनमें स्वदेशी रूप और अभिप्रायों का मिश्रण मिलता है।
संकलन के प्राचीनतम आभूषण संभवतः मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा दक्कन को अधिकार में लेने के समय हैदराबाद के खजाने में आए थे। दोहरी लड़ी के सुंदर श्रृंखलायुक्त कंठहार जिनके दोनों ओर हीरे जड़ित परवर्ती 17वीं अथवा प्रारंभिक 18वीं शताब्दी के हैं। ये विशिष्टतः आदिलशाही प्रकार के हैं। पुष्प-कलिका के डिजाइन में बनाया गया हीरों से जड़ित उत्कृष्ट बाजूबंदों का जोड़ा शाही मुगल शिल्पकला की परिष्कृति का प्रदर्शन करता है। पन्ने से जड़ित दो सुन्दर बाजूबंद ऐसा माना जाता है कि कभी मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के रहे होंगे। अधिकतर आभूषण दक्कनी शिल्पकारिता की निरंतरता और मुगलई विरासत की सौन्दर्यपरक संवेदनशीलता का प्रदर्शन करते हैं। अनेक डिजाइनों और रूपों में सोने और चांदी में ढाले गए आभूषणों में, जटिलता, बारीकी और वैभव झलकता है।
ये डिजाइन की उन सभी श्रेणियों का प्रदर्शन करते हैं जहां तक कला की पहुंच है। प्रारंभिक 18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात शिल्पकार इधर-उधर जाने लगे और इस प्रकार मुगल मूल के डिजाइन और रूप, विशेष रूप से जयपुर, मुर्शीदाबाद, लखनउू और हैदराबाद के दरबारों सहित समूचे भारत में प्रचलित हो गए। यद्यपि मीनाकारी की शैलियों का भी प्रादुर्भाव हुआ और प्रत्येक क्षेत्र ने अपने एक संकेत रंग और अभिप्राय का विकास किया किन्तु पूरी 18वीं शताब्दी में श्वेत धरातल पर लाल और हरा रंग सर्वव्यापक रहा।
हैदराबाद में अग्रभाग पर मीनाकारी से युक्त स्वर्ण जड़ित रत्नों से आभूषण बनाए जाते रहे। हीरे और मीनाकारी से युक्त दो सुन्दर लटकनों ;और मीनाकारी और शिल्पकारिता का प्रमाण मिलता है। गहरे हरे, पारभासी हरे और गहरे नीले रंग से निर्मित पुष्प रूपी लटकन दक्कनी शिल्पकारिता का प्रमाण है 19वीं शताब्दी में रााजसी अभिरुचि में सुस्पष्ट योरोपीयकरण दृष्टिगोचर होता है। आभूषणों के प्रकार, डिजाइनों और निर्माण तकनीकों में यह प्रतिभासित होता है। हीरों से जड़ित कंठहार और विशिष्टतः योरोपीय बकसुओं से युक्त महीन आधार पर हीरों और बटन पर्ल से क्लाॅ सैट कंठहार विशिष्टतः पश्चिमी डिजाइन शैली का प्रदर्शन करते हैं। निर्माता के चिन्ह के अभाव में इन रत्नजड़ित आभूषणों का उद्गम स्थान निश्चित कर पाना अत्यन्त कठिन है। ये भारत के महाराजाओं लिए बंबई अथवा कलकत्ता में स्थापित किसी भी फर्म अथवा परिवर्तनशील अभिरुचियों और तकनीकों को अपनाने वाले भारतीय सुनारों द्वारा बनाए गए हो सकते हैं। इस प्रकार के अनेक आभूषणों का यहां प्रतिनिधित्व हुआ है किंतु सबसे उत्कृष्ट आभूषणों में है सरपेच और कंठहार-जिन्हें अधिक आधुनिक शैली में बनाया गया है। ये मीनाकारी से रहित हैं और रत्नों को क्लाॅ सैट किया गया है। अंतिम विश्लेषण के तौर पर इस संकलन
से यह पता चलता है कि निजाम के रत्नजड़ित आभूषणों में मुगल, दक्कनी और योरोपीय प्रभावों का सम्मिश्रण है। ये उस राजवंश के लोकाचारों को प्रतिभासित करते हैं जिसका उद्गम मुगल दरबार में हुआ था और जिसने दक्कन पर शासन किया था और जिसने दक्कन पर शासन किया था तथा जो ब्रिटिश साम्राज्य का विश्वसनीय मित्र था।
यद्यपि निजामों का शासन दक्कन पर था तथापि उन्होंने मुगलों की जीवन शैली, दरबारी परंपराओं और प्रशासन-पद्धति का अनुसरण किया। सम्राज्य की नीतियों के संबंध में भी उन्होंने मुगलों द्वारा स्थापित संहिताओं को अपनाया। संपत्ति की महत्ता और खजाने के मूल्य को समझना उन्हें बहुत छोटी उम्र में ही आ गया था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे पुनरावृत्त किया गया।
1972 में आभूषण जगत में इस समाचार से एक हलचल सी पैदा हुई कि हैदराबाद के निजाम के रत्नजड़ित आभूषण जिन्हें सर्वाधिक अद्वितीय संकलनों में से एक माना जाता है भारत सरकार को विक्रय हेतु प्रस्तुत किए गए थे। उसके 23 वर्षों के पश्चात ही एक लंबे नाटक के बाद अंततः 1995 में इस आभूषण संकलन का अर्जन कर लिया गया। इसकी मुकदमेंबाजी में अत्यधिक खर्च हुआ।
18 सितंबर, 1948 को हैदराबाद राज्य को भारत संघ समाविष्ट कर लिया गया और इस प्रकार राष्ट्र में राजसी प्रदेशों के समाकलन की प्रक्रिया पूर्ण हो गई। निजाम मीर उस्मान अली खान और भारत सरकार के मध्य हैदराबाद के विलय से संबंधित वाद-विषय पर वार्ता जनवरी 1950 तक चलती रही जिसके पश्चात महामान्य हैदराबाद के निजाम के अधिकारों, विशेषाधिकारों और पदवी, राजकुल संबंधी उत्तराधिकारिता और निजी कोष से संबंधित औपचारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए।
हैदराबाद के समाकलन के पश्चात भारत सरकार द्वारा की गई एक पहल थी- निजाम के सर्फ-ए-खास परंपरागत उत्तराधिकार के द्वारा प्राप्त पैतृक भूमि, जिसकी आय का उपयोग राजवंश की गरिमा को बनाए रखने के लिए किया जाता थाद्ध को अपने अधीन करना। इन भूमियों से निजाम को प्रतिवर्ष रु. 124 लाख की आय होती थी। इस हानि के लिए उन्हें उनके निजी कोष के रु. 50 लाख के अतिरिक्त उनके पूरे जीवन काल में रु. 50 लाख का वार्षिक भत्ता भी प्राप्त हुआ। निजाम के दरबार की स्थिति अच्छी नहीं थी। 1955 में मीर उस्मान अली खान का एक बड़ा कुटुम्ब था और उनके 1000 से भी अधिक नौकर-चाकर थे।
जब यह स्पष्ट हो गया कि परिस्थितियां फिर से वैसी ही नहीं रहेंगी तो दूरदर्शी उस्मान अली खान ने अपनी पैतृक संपत्ति तथा अपने उत्तराधिकारियों एवं अनेक निर्भर व्यक्तियों के अनिश्चित भविष्य को सुरक्षित करने का कार्य आरंभ किया। निजाम ने अपनी वृहद संपदा के एक भाग को समाप्त कर उसे अनेक न्यासों में आवंटित कर दिया ताकि इस उद्देश्य की प्राप्ति हो सके। इनमें सर्वाधिक अद्वितीय न्यास था ‘एच.ई.एच.द. निजाम्स ज्वैलरी ट्रस्ट’ जिसे 29 मार्च 1951 को स्थापित किया गया था। यह किसी भी भारतीय शासक द्वारा स्थापित किया गया इस प्रकार का पहला ऐसा न्यास था।
इस न्यास को उस्मान अली खान ने 107 वस्तुएं सौंपी थीं जिसमें राजकीय अवसरों पर पहने जाने वाले आभूषणों सहित उनके निजी रत्नजड़ित आभूषण भी थे। अपने वंशजों को उपहार देने के पश्चात उन्होंने एच.ई.एच द निजाम्स सप्लीमेंट ज्वैलरी ट्रस्ट भी बनाया जिसे 28 फरवरी 1952 को संस्थापित किया गया था। सरकारी वस्तु सूची के अनुसार वर्तमान संकलन में इन दोनों ट्रस्टों से कुल 173 वस्तुएं हैं तथापि ;जोड़ों और आभूषणों के समूह को ध्यान में रखते हुए वस्तुओं की वास्तविक संख्या 325 है। इनमें 22 अजड़ित पन्ने और जैकब डायमंड सम्मिलित नहीं हैं। संकलन में सरपेच, कंठहार, कर्णाभूषण, बाजूबंद, कंगन, पेटियां, बटन और कफलिंक, पाजेब, घड़ी की चेन और अंगूठियां हैं- ये सभी रत्नजड़ित आभूषण कभी हैदराबाद के निजामों उनकी बेगमों और बच्चों द्वारा पहने गए थे।
आसफ जाह राजवंश हैदराबाद के निजाम का जिससे संबंध था की वंश परंपरा मीर कमरुद्दीन ;निजाम उल मुल्क फतेह जंग, आसफ जाह प्रथमद्ध तक जाती है। वे मुगल बादशाह औरंगजेब के कृपापात्र थे। उन्होंने औरंगजेब के अधीन अनेक अभियानों में भाग लिया था। 1713 में उन्हें दक्कन मुगल साम्राज्य का सर्वाधिक समृद्ध प्रांतद्ध का वायसराय नियुक्त किया गया।
उनकी मृत्यु के समय तक निजाम राज्य पश्चिमी तट के किनारे पतली-सी-पट्टी के अतिरिक्त ;जहां मराठों का प्रभुत्व थाद्ध ताप्ती नदी के दक्षिण में समस्त पठारी भाग तक फैला हुआ था। यह मदुरई और त्रिचिनापल्ली तक और गोलकुंडा की हीरों की खदानों को घेरे हुए था और समस्त पूर्वी तट तक फैला हुआ था।
यद्यपि निजामों का शासन दक्कन पर था तथापि उन्होंने मुगलों की जीवन शैली, दरबारी परंपराओं और प्रशासन-पद्धति का अनुसरण किया। सम्राज्य की नीतियों के संबंध में भी उन्होंने मुगलों द्वारा स्थापित संहिताओं को अपनाया। संपत्ति की महत्ता और खजाने के मूल्य को समझना उन्हें बहुत छोटी उम्र में ही आ गया था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे पुनरावृत्त किया गया। प्रत्येक निजाम ने आसफ जाह खजाने को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इस लक्ष्य की प्राप्ति में उन्हें उस पुरानी निषेधाज्ञा ने सहयोग दिया कि खदान से निकाले गए सर्वोत्कृष्ट रत्न शासक को ही दिए जाने चाहिए। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भी गोलकुंडा की खदानों में अच्छी गुणवत्ता के रत्न पाए जाते थे जिन्होंने हैदराबाद के खजाने को और भी समृद्ध कर दिया। भारत अभी भी बर्मा के माणिक्यों और लालड़ी, कोलंबियाई पन्नों और बसरा के मोतियों का मुख्य बाजार था। मुगलों के अनौपचारिक उत्तराधिकारियों के रूप में निजाम निस्संदेह उत्कृष्ट रत्नों के सबसे बड़े खरीददार थे। असाफ जाह के दरबार में विके्रताओं का तांता लगा रहता था।
नजराना की पुरानी रस्म, जिसमें शासक और उसके परिवार को वफादारी की अभिव्यक्ति के रूप में स्वर्ण, रत्न और रत्नजड़ित आभूषणों के उपहार दिए जाते थे,को निजामों ने भी जारी रखा। उपहारों के आकार और उनके मूल्य के बारे में अमीरों और जागीरदारों में होड़ लगी रहती थी। ये उपहार अधिकतर मूल्यवान रत्न, रत्नजड़ित आभूषण और स्वर्ण होता था।
1748 में पहले निजाम की मृत्यु के समय आसफ जाह का खजाना रत्नों और रत्नजड़ित आभूषणों से परिपूर्ण था जिसे पूर्व दक्कनी राज्यों को संकलित किया गया था। इसी वजह से निजाम का दरबार दिल्ली दरबार के बाद सर्वाधिक वैभवपूर्ण था। किंतु उनके उत्तराधिकारियों के पास न तो उन जैसा उत्साह ही था और न ही उनके जैसी प्रतिभा ही थी। अनेक राजनीतिक रणनीतियों और फिजूलखर्ची वाली राजकीय मौज-मस्ती के लिए प्रदान प्रदान करने के निरंतर खजाना खाली होता रहा।
छठे निजाम के रूप में हैदराबाद की मसनद पर बैठने वाले महबूब अली पाशा के शासन-काल में यह सर्वाधिक स्पष्ट था। उन्होंने अपनी एक ऐसी दुनिया बनाई जो आधी मुगल और आधी ब्रिटिश थी। महबूब की फिलूजखर्ची और उदारता दंतकथा बन गई है। किन्तु उस जमाने में जबकि अन्य भारतीय महाराजाओं में अपने जगमगाते हुए आभूषणों का प्रदर्शन करने में होड़-सी लगी रहती थी, महबूब की सादगी कमाल की थी। वे अत्यधिक राजकीय वसन-भूषण से अलग-थलग रहते थे। वे पश्चिमी परिधान पहनने वाले पहले निजाम थे और बहुधा सूट और इंगलिश शिकारी की पोशाक पहनते थे।
आभूषण न धारण करना संभवतः उनकी निजी पसंद का विषय था क्योंकि इसने उन्हें खजाने के लिए सुन्दर रत्नजड़ित आभूषण और रत्न अर्जित करने से नहीं रोका था। उन्होंने विक्रेता एलेक्जेंडर मैलकम जैकब से इम्पीरियल डायमंड ; जो बाद में जैकब डायमंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ- एन.जे. 95.89 रु में खरीदा। 1891 में इस खरीद के लिए उनके द्वारा किए गए लेन-देन से दांडिक वाद उत्पन्न हुआ और उन्हें एक कमीशन के समक्ष साक्ष्य देने का अपमान सहन करना पड़ा। आसफ जाह राजवंश के सातवें और आखिरी निजाम के रूप में सितंबर 1911 में उनके पुत्र मीर उस्मान अली खान हैदराबाद की मसनद पर बैठे। उनकी वंशावली की पारंपरिक शान-औ-शौकत से उनका राज्याभिषेक हुआ। पीढ़ियों की वित्तीय व्यवस्था और असीम ब्याज के भुगतान से भारग्रस्त आखिरी निजाम का शासन-काल उनके पिता की अतिशयता के बिल्कुल विपरीत था।
इसका मात्र अनुमान ही लगाया जा सकता है कि उस्मान ने उत्तराधिकार में वस्तुतः क्या प्राप्त किया था। इस विषय में अनेक अफवाहें हैं कि उस्मान अली खान ने उत्तराधिकार में स्वर्ण-दण्ड प्राप्त किए थे। कि कोई भी व्यक्ति उनके खजाने तक नहीं पहंुच सकता था, कि वे खजाने की चाबी अपनी बनियान की भीतरी जेब में रखते थे, और कि कोई ऐसा दिन नहीं बीतता था कि वे अपने कुछ रत्नजड़ित आभूषणों को देखकर उनकी प्रशंसा न करते रहे हों।
मीर उस्मान अली खान के शासनकाल के दौरान रत्नजड़ित आभूषण कभी-कभी पहने तो जाते थे किंतु उनका कभी प्रदर्शन नहीं किया गया था। एकमात्र ज्ञात अपवाद 1950 का है जब गजदर लिमिटेड, बंबई की प्रसिद्ध आभूषण फर्म के स्वामी दीनशाह जे. गजदर को उस्मान अली खान द्वारा आसफ जाह के रत्नजड़ित आभूषणों का मूल्य निश्चित करने के लिए हैदराबाद आमंत्रित किया गया। यह कार्य संभवतः अपनी विशाल संपदा को अपने बड़े कुटुंब के अनेक सदस्यों के मध्य बांटने और जिन न्यासों की वे स्थापना कर रहे थे उनमें इन रत्नजड़ित आभूषणों को आबंटित करने के उनके प्रयास का एक भाग था।
भविष्य में आने वाले किसी भी प्रकार के आर्थिक संकट के लिए न्यासों की स्थापना द्वारा मीर उस्मान अली खान ने कार्य निष्पादन की सहज भारतीय पद्धति को दोहराया था। यदि खजाना ऐतिहासिक रूप से साम्राज्य का वित्तीय बचाव था तो न्यास, आसफ जाह राजवंश की नष्ट होती संपत्ति के विरुद्ध
किलेबंदी थे।
भारत सरकार द्वारा अर्जित रत्नजड़ित आभूषणों का संकलन प्रारंभिक 18वीं शताब्दी से प्रारंभिक 20वीं शताब्दी तक का है; इनमें गोलकुंडा की खदानों से प्राप्त हीरे और कोलंबियाई पन्ने प्रचुर मात्रा में हैं इनके अतिरिक्त बर्मा के माणिक्य और लालड़ी तथा बसरा और भारत के पूर्वी तट के परे मन्नार की खाड़ी के मोती भी हैं। ये सभी रत्नजड़ित आभूषण तड़कभड़क हैं किन्तु मूल्यवान रत्नों की चमक-दमक के बीच कुछ विशिष्ट आभूषण अपनी पुरातनता और शिल्पकारिता के कारण अलग से ही दिखाई पड़ते हैं।
आसफ जहां के रत्नजड़ित आभूषणों के अध्ययन हेतु स्रोत इस प्रकार से विद्यमान हैं। इनका उद्गम-स्थान निश्चित रूप से जान पाना लगभग असंभव-सा है। निजाम अपने विशाल प्रदेश में एकान्तवास करते थे और उनका दरबार पूर्ण गोपनीयता से महबूब अली पाशा के राजकीय छाया चित्रकार, लाला दीनदयाल ने ऐसे चित्र खींचे जो रत्नजड़ित आभूषणों का मात्र प्रचलित दृश्य प्रलेखन करते हैं। दुर्लभ अपवादों सहित, यहां तक कि महबूत अली पाशा और उस्मान अली खान के फोटो रूपचित्रों में भी विश्व के सर्वाधिक समृद्ध व्यक्तियों को भड़कीले आभूषणों से रहित दिखाया गया है। इनमें सीधी-सादी घड़ी की चेन, कोट के बटन और कुछ अंगूठियां ही दिखाई देते हैं।
निजाम दक्षिण भारत में विदेशी थे। परिस्थितियां उन्हें ऐसे क्षेत्र में ले आई थीं जिसे उन्होंने अंततः अपना घर बना लिया था। किन्तु लगभग 225 वर्षों तक जबकिक उन्होंने दक्कन की राजनीत पर अपना एकाधिकार बनाए रखा, उनका दरबार उनकी जीवन शैली और संस्कृति, दिल्ली के मुगल दरबार से प्रभावित थी जो स्वदेशी स्थिति से विशिष्टतः भिन्न थी। तथापि, अनेक वस्तुओं में स्थानीय प्रभाव दिखलाई पड़ता है जैसे कि बर्मा के कैबेशोन माणिक्यों से जड़ित बकसुआ, इसमें दक्षिण भारत की केश-अलंकरण शैली में हीरे जड़ित हैं। लटकनों से युक्त हीरे और पन्ने के ल्रंबे में उत्तर और दक्षिण का सम्मिश्रण दिखलाई पड़ता है। ये दक्षिण भारतीय मकरक्रान्ति शैली में निर्मित हैं और रजत में जड़ित रत्नों और पृष्ठ भाग पर मीनाकारी से युक्त हैं। इनमें स्वदेशी रूप और अभिप्रायों का मिश्रण मिलता है।
संकलन के प्राचीनतम आभूषण संभवतः मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा दक्कन को अधिकार में लेने के समय हैदराबाद के खजाने में आए थे। दोहरी लड़ी के सुंदर श्रृंखलायुक्त कंठहार जिनके दोनों ओर हीरे जड़ित परवर्ती 17वीं अथवा प्रारंभिक 18वीं शताब्दी के हैं। ये विशिष्टतः आदिलशाही प्रकार के हैं। पुष्प-कलिका के डिजाइन में बनाया गया हीरों से जड़ित उत्कृष्ट बाजूबंदों का जोड़ा शाही मुगल शिल्पकला की परिष्कृति का प्रदर्शन करता है। पन्ने से जड़ित दो सुन्दर बाजूबंद ऐसा माना जाता है कि कभी मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के रहे होंगे। अधिकतर आभूषण दक्कनी शिल्पकारिता की निरंतरता और मुगलई विरासत की सौन्दर्यपरक संवेदनशीलता का प्रदर्शन करते हैं। अनेक डिजाइनों और रूपों में सोने और चांदी में ढाले गए आभूषणों में, जटिलता, बारीकी और वैभव झलकता है।
ये डिजाइन की उन सभी श्रेणियों का प्रदर्शन करते हैं जहां तक कला की पहुंच है। प्रारंभिक 18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात शिल्पकार इधर-उधर जाने लगे और इस प्रकार मुगल मूल के डिजाइन और रूप, विशेष रूप से जयपुर, मुर्शीदाबाद, लखनउू और हैदराबाद के दरबारों सहित समूचे भारत में प्रचलित हो गए। यद्यपि मीनाकारी की शैलियों का भी प्रादुर्भाव हुआ और प्रत्येक क्षेत्र ने अपने एक संकेत रंग और अभिप्राय का विकास किया किन्तु पूरी 18वीं शताब्दी में श्वेत धरातल पर लाल और हरा रंग सर्वव्यापक रहा।
हैदराबाद में अग्रभाग पर मीनाकारी से युक्त स्वर्ण जड़ित रत्नों से आभूषण बनाए जाते रहे। हीरे और मीनाकारी से युक्त दो सुन्दर लटकनों ;और मीनाकारी और शिल्पकारिता का प्रमाण मिलता है। गहरे हरे, पारभासी हरे और गहरे नीले रंग से निर्मित पुष्प रूपी लटकन दक्कनी शिल्पकारिता का प्रमाण है 19वीं शताब्दी में रााजसी अभिरुचि में सुस्पष्ट योरोपीयकरण दृष्टिगोचर होता है। आभूषणों के प्रकार, डिजाइनों और निर्माण तकनीकों में यह प्रतिभासित होता है। हीरों से जड़ित कंठहार और विशिष्टतः योरोपीय बकसुओं से युक्त महीन आधार पर हीरों और बटन पर्ल से क्लाॅ सैट कंठहार विशिष्टतः पश्चिमी डिजाइन शैली का प्रदर्शन करते हैं। निर्माता के चिन्ह के अभाव में इन रत्नजड़ित आभूषणों का उद्गम स्थान निश्चित कर पाना अत्यन्त कठिन है। ये भारत के महाराजाओं लिए बंबई अथवा कलकत्ता में स्थापित किसी भी फर्म अथवा परिवर्तनशील अभिरुचियों और तकनीकों को अपनाने वाले भारतीय सुनारों द्वारा बनाए गए हो सकते हैं। इस प्रकार के अनेक आभूषणों का यहां प्रतिनिधित्व हुआ है किंतु सबसे उत्कृष्ट आभूषणों में है सरपेच और कंठहार-जिन्हें अधिक आधुनिक शैली में बनाया गया है। ये मीनाकारी से रहित हैं और रत्नों को क्लाॅ सैट किया गया है। अंतिम विश्लेषण के तौर पर इस संकलन
से यह पता चलता है कि निजाम के रत्नजड़ित आभूषणों में मुगल, दक्कनी और योरोपीय प्रभावों का सम्मिश्रण है। ये उस राजवंश के लोकाचारों को प्रतिभासित करते हैं जिसका उद्गम मुगल दरबार में हुआ था और जिसने दक्कन पर शासन किया था और जिसने दक्कन पर शासन किया था तथा जो ब्रिटिश साम्राज्य का विश्वसनीय मित्र था।