इस मुद्दे की संवेदनशीलता को पहचानते हुए खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय खाद्य दिवस (16 अक्टूबर 2011) के लिए यही मुद्दा रखा है। किस प्रकार खाद्य पदार्थों की कीमतों पर काबू किया जा सकता है, इसके लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में तेजी ने सभी के आर्थिक समीकरण को बिगाड़ दिया है। अब किसान तेजी के साथ यह तय कर लेते हैं कि कौन सी खेती उन्हें ज्यादा करनी है और कौन सी कम। कीमतों में अस्थिरता के चलते उनके ऊपर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। इससे कृषि में जरूरी निवेश के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था में भी दिक्कत आती है।

दुनिया के गरीब देशों में खाद्य पदार्थ की कीमतों में परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए जी-20 देशों ने 2011 में उन दिशाओं पर चिंतन किया जिससे खाद्य पदार्थों के बाजार में कीमतों के तेज परिवर्तन पर काबू रखा जा सके। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के नेतृत्व में जी-20 देश इस बात पर सहमत हुए कि दुनिया के उन देशों को केंद्र में रखकर ऐसे प्रस्ताव तैयार किए जाएं जो कीमतों से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। वर्ष 1975 से 2000 के बीच अनाज के दामों में माह दर माह के आधार पर स्थिरता देखी गई। इस दौर में कई बार तो इनके दामों में दीर्घ अवधि के दौरान कमी भी देखी गई। दुनियाभर में जनसंख्या में तेज वृद्धि के बावजूद (दुनिया की जनसंख्या वर्ष 1960-2000 के बीच दोगुनी हो गई) हरित क्रांति की वजह से बढ़ती जनसंख्या की खाद्य पदार्थों की मांग को पूरा किया जा सका। यह सब हरित क्रांति के जनक नॉरमेन बारलॉग की वजह से संभव हो पाया। प्रमुख कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम.एस. स्वामिनाथन के प्रयासों की वजह से भारत में तो खाद्य पदार्थों का मांग से अधिक उत्पादन संभव हो पाया।

दुनियाभर में अब तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है। बाजार में आपूर्ति की स्थिति काफी नाजुक है। जैसे-तैसे खाद्य पदार्थों की मांग को पूरा किया जा रहा है। आपूर्ति और मांग में अंतर बढ़ता जा रहा है। खाद्य पदार्थ भंडारण अपने सबसे निचले स्तर पर बने हुए हैं। यह कमजोर स्थिति कभी भी संकट का रूप ले सकती है यदि दुनिया के किसी भी महत्वपूर्ण कृषि उत्पादक हिस्से में बाढ़ या सूखे की स्थिति पैदा हो जाए। ऐसे में इस बिंदु पर विचार करना जरूरी हो गया है कि आखिर कैसे खाद्य पदार्थों का स्थिर बाजार एकदम से अस्थिर कीमतों के बाजार में बदल गया।

वर्ष 2005 से 2008 के बीच का दौर

वर्ष 2005-08 के बीच दुनियाभर में खाद्य पदार्थों के दाम 30 वर्षों में सबसे अधिक हो गए। इस अवधि के अंतिम 18 महीनों में मक्का के दाम 74 फीसदी बढ़ गए जबकि चावल की कीमतें लगभग तीन गुनी हो गई। इस अवधि के दौरान सभी खाद्य पदार्थों के दामों में औसतन 166 फीसदी की बढ़त हुई।

इसकी वजह से दुनिया के 20 देशों में खाद्य पदार्थों को लेकर दंगे हुए। जून 2008 में सर्वाधिक कीमतों के बाद अगले छह महीनों में खाद्य पदार्थों के दामों में 33 फीसदी तक की गिरावट हो गई। इसकी वजह दुनियाभर में छायी आर्थिक मंदी और वित्त बाजार का संकट माना गया। कीमतों में यह गिरावट थोड़े समय के लिए ही रह पाई। वर्ष 2010 में अनाज के दाम फिर तेजी से बढ़कर 50 फीसदी अधिक हो गए। इसके बाद इसमें लगातार तेजी रही और 2011 की दूसरी तिमाही में जाकर इसमें कुछ गिरावट दर्ज की गई। अब आगे क्या होगा, यही प्रश्न सभी के सामने है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आने वाले समय में भी खाद्य पदार्थों के दामों में यह अनिश्चितता बनी रहेगी। यह एक सुखद सूचना नहीं है क्योंकि खाद्य पदार्थों के दामों में अनिश्चितता से विकासशील देशों के सामने खाद्य सुरक्षा की चुनौती बनी रहेगी। इसकी मार गरीबों पर ज्यादा होगी। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2010-11 में खाद्य पदार्थों के दामों में वृद्धि ने दुनियाभर में 70 मिलियन लोगों को बेहद गरीबी के हालातों में रहने को विवश कर दिया।

गरीब देशों के बजट गड़बड़ाए

खाद्य पदार्थों के आयात पर निर्भर रहने वाले देशों के बजट इस वृद्धि ने गड़बड़ा दिए हैं। दुनिया के कम आय वाले खाद्य आयातक देशों ने वर्ष 2010 में 164 बिलियन यूएस अमेरिकी डालर खाद्य पदार्थों के आयात पर खर्च किए जो इससे पूर्व के वर्ष के मुकाबले 20 फीसदी अधिक है। दुनिया के ज्यादातर गरीब देशों के लोगों की औसत आय 1.25 यूएस अमेरिकी डालर से कम है। ऐसे में खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि का सीधा अर्थ होता है कि वह एक समय पर भोजन न करें। यह स्थिति खतरनाक हो जाती है।

इसी प्रकार किसानों को यदि अपनी उपज के सही दाम का अंदाजा नहीं होगा तो वह भी संकट से घिर जाएंगे। अच्छा दाम मिलने पर किसान खाद्य पदार्थ की ज्यादा फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित होंगे जबकि कम दाम मिलने पर वह अन्य उपज की और ध्‍यान देंगे। ऐसे में दामों में स्थिरता किसानों के लिए भी काफी जरूरी हो जाती है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में खाद्य पदार्थों का उत्पादन और कीमतें

भारत में बढ़ती जनसंख्या के हिसाब से खाद्य उत्पादन तो बढ़ा है मगर दुनियाभर में बढ़ती कीमतों से देश अछूता नहीं रहा है। इसके लिए जरूरी है कि उत्पादन को निरंतर बढ़ाया जाए। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद इस दिशा में सतत प्रयासरत है। इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि वर्ष 1950-51 के 50 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाकर 2010-11 में 242 मिलियन टन तक पहुंचा दिया गया, जिसमें 95 मिलियन टन चावल, 86 मिलियन टन गेहूं और 18 मिलियन टन दलहन शामिल हैं। इसके अलावा फल, सब्जी, दूध, अंडे और मछलियों का उत्पाद भी बढ़ा है। 2020 तक भारत को 280 मिलियन टन अनाज की जरूरत होगी। इसके अलावा 66 मिलियन टन तिलहन, 95 मिलियन टन फल और 150 मिलियन टन दूध का उत्पादन करना होगा। इसके लिए भा.कृ.अनु.प. ने नेटवर्क कार्यक्रमों की शुरूआत की है। इसके तहत प्रमुख फसलों का उत्पादन बढ़ाया जाएगा जिसमें चावल, मक्का, सोयाबीन, कपास, सरसों, टमाटर, पपीता, बैंगन, केला आदि शामिल होंगी।

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान कम हो रहा है। 1990-91 में यह 30 प्रतिशत था जो अब 16 तक आ गया है। कृषि की विकास दर भी कम है। ऐसे में कृषि के योगदान को बढ़ाना चुनौती होगी। अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2030 तक देश को 345 मिलियन टन खाद्यान्न की जरूरत होगी। इसके लिए गेहूं के उत्पादन को 100 मिलियन टन तक पहुंचाना होगा। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचने के लिए राष्ट्रीय पहल आरंभ हो चुकी है। इसी प्रकार दलहन के उत्पादन को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम शुरू हो चुके हैं। कोशिश की जा रही है कि बढ़ती आबादी के साथ उत्पादन को भी बढ़ाया जाए और कीमतों को आम आदमी की पहुंच में बनाए रखा जाए।