पिछले कई वर्षों से इस संगठन में सुधार की मांग की जा रही थी और स्वयं सम्मेलन 2009 द्वारा गठित सुधार पैनल द्वारा की गई 106 अनुशंसाएं इसके सामने विचाराधीन थीं। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने अपने उद्घाटन भाषण में वर्तमान आकांक्षाओं का बेधड़क उत्तर देने वाले तथा संगठन को तरोताजा, चुस्त एवं भविष्य के लिए दुरुस्त रखने वाले सुधारों को स्वीकार करने का आग्रह किया। इससे भी सुधारों की प्रतिध्वनि तेज हुई थी। चूंकि इनमें से कई प्रस्तावों पर सहमति नहीं बन पाई, इसलिए सुधार समर्थकों की नजर में यह राष्ट्रमंडल सम्मेलन विफल हो गया। लेकिन जुलिया गेलार्ड ने इन नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को देखते हुए ही इसे सपाट शब्दों में महत्वपूर्ण सुधारों एवं बड़े निर्णयों वाला सम्मेलन करार दिया। महासचिव कमलेष शर्मा ने भी इसे असधारण रूप से सफल करार दिया है। तो सच क्या है?

वस्तुतः मंत्री स्तरीय कार्यसमूह ने संगठन में सुधार के लिए जो 106 अनुशंसाएं कीं थीं उन्हें स्वीकारने के बाद राष्ट्रमंडल संगठन संरचना से लेकर, निर्णय प्रणाली, भूमिका, कार्यसवरूप आदि में व्यापक परिवर्तन हो जाता। एक सच यह है कि कई अनुशंसाओं को खारिज कर दिया गया लेकिन अनेक को अगली बैठकों में चर्चा के लिए भी रखा गया है और यह भी एक सच है। लगभग एक तिहाई अनुशंसाओं को स्वीकार भी किया गया है। अगर इसके आईने में विचार करंे तो यह यकीनन ऐतिहासिक नजर आएगा। इसकी एक अनुशंसा स्वीकारने के साथ राष्ट्रमंडल को यह अधिकार मिल गया है कि किसी सदस्य देश की निर्वाचित सरकार के तख्ता पलट की स्थिति में वहां हस्तक्षेप करे एवं इस स्थिति को रोके। संगठन की कार्यप्रणाली में सुधार की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण परिवर्तन है। इस कदम को सुधार की श्रेणी में ही माना जाएगा। फिजी को इस आधार पर राष्ट्रमंडल से निलंबित किया जा चुका है। इसके बाद राष्ट्रमंडल अब किसी सदस्य में लोकतंत्र, मानवाधिकार एवं कानून व्यवस्था पर खतरा पैदा होने की स्थिति में हस्तक्षेप कर सकता है। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं है कि वह किन परिस्थितियों को हस्तक्षेप के लायक मानेगा। किंतु कोई भी यह स्वीकार करेगा कि हस्तक्षेप का ऐसा अधिकार वर्तमान अंतरराष्ट्रीय ढांचे व परिस्थितियों में सामान्य बात नहीं है।

हां, राष्ट्रमंडल मानव अधिकार आयोग की स्थापना की मांग अस्वीकार किए जाने से कुछ पक्षों को निराशा हुई है। दरअसल, सम्मेलन को तीखे शब्दों में अपना शिकार बनाने या विफल बताने वालों में बड़ी संख्या उनकी ही है जो मानवाधिकार संस्था की पुरजोर वकालत कर रहे थे। इसी से जुड़ा हुआ मामला सदस्य देशों के अंदर समलैंगिकता संबंधी कानूनों के अंत का भी था। मानवाधिकार आयुक्त की स्थापना के समर्थक कह रहे हैं कि अगर आप अपने सदस्य देशों की निंदा भी नहीं कर सकते और उनके खिलाफ कदम नहीं उठा सकते तो आपके होने की प्रासंगिकता क्या है? किंतु मानवाधिकार पर पूरी दुनिया एकमत कभी नहीं रही। स्वयं भारत की ओर से ही विश्व की प्रमुख मानवाधिकार संस्थाओं की रिपोर्ट की बार-बार आलोचना की गई है। दरअसल, मानवाधिकार कानून और संविधान से ज्यादा महत्वपूर्ण सांस्कृतिक-सामाजिक विषय है। इसका सम्पूर्ण रुप से कोई एकीकृत सार्वभौमिक स्वरूप नहीं हो सकता। राष्ट्रमंडल देशों के सदस्य देशांे की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि काफी भिन्न हैं और इस कारण इनकी अवधारणा, सोच एवं कल्पना में भी भिन्नता है। पश्चिम के प्रभावी देशों की कल्पना के अनुरूप इन पर मानवाधिकारों के सारे नियम लागू नहीं किया जा सकता और संगठन ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर इसे मानना इनके लिए बाध्यता हो जाएगी और न मानने पर उन्हें दंडित किया जा सकता है। इसलिए इसका विरोध हुआ और उसमें भारत भी शामिल था। वैसे इस पर अगले सम्मेलनों में चर्चा होगी, पर कमलेश शर्मा ने साफ कहा कि इसकी जिस रूप में अनुशंसा की गई है उसकी आवश्यकता अब नहीं है। यही इसकी स्वाभाविक परिणति मानी जानी चाहिए। मानवाधिकारों के झंडाबरदार यह न भूलें कि जैसा वे चाहते हैं वैसा तेवर देने के साथ चोग्म में विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

विरोधी यह न भूलें कि राष्ट्रमंडल के चार्टर पर सहमति बनना भी महत्वपूर्ण प्रगति है। चार्टर पर सितंबर 2012 में चर्चा करके मसौदा तैयार किया जाएगा। किसी संगठन का चार्टर उसका सिद्धांत होता है जिसकी परिमिति में भूमिकाएं निर्धारित हो सकतीं हैं। इसलिए चार्टर पर सहमति होना इस बात का प्रमाण है कि सदस्य देश नई परिस्थितियों में संगठन के सिद्धांत, लक्ष्य, व्यवहार एवं संरचना पर समग्र रूप से विचार करना चाहते हैं। यह 1991 के हरारे सम्मेलन के बाद दूसरा अवसर होगा। 1971 में चोग्म के रूप में इसकी पुनर्रचना हुई तथा उसमें सिद्धांत, लक्ष्य, संरचना एवं कार्यप्रणाली निर्धारित हुई। उसके 20 वर्ष बाद 1991 में संशोधन एवं विस्तार हुआ। अब 2011 यानी पुनः 20 वर्ष बाद चार्टर के रूप उसका पुनर्पपरिमार्जन एवं विस्तार प्रस्तावित है। एक बार चार्टर तय हो जाने के बाद सभी मामलों पर संगठन के कार्यव्यवहार का औपचारिक दिशानिर्देश सामने होगा।

ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर आने वाले पूर्व गुलाम देशों के इस संगठन की प्रासंगिकता पर ठोस प्रश्न खड़ा करने वालों की भारी संख्या है। लेकिन यह अलग से विचार का विषय है। पर्थ सम्मेलन का अगर भारत की दृष्टि से विचार करें तो कमलेश शर्मा को दोबारा सर्वसम्मति से महासचित चुना जाना भारत के अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ने का द्योतक है और सोने में सुंगध यह कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के इस प्रस्ताव का समर्थन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने किया। फिर भारत की ओर से आतंकवाद पर व्यापक संधि की पहल का सम्मेलन ने पूरा समर्थन दिया और अंत में जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि इस पर वार्ता को जल्द से जल्द परिणाम तक पहुंचाया जाना चाहिए। इसमें आतंकवाद के सभी रुपों को गैर कानूनी घोषित करने, उनके समर्थकों, उनका वित्त पोषण करने, उन्हें सुरक्षित ठिकाना मुहैया करने... आदि के निषेध का प्रावधान है। कम से कम विज्ञप्ति के आलोक में हम इतना तो कह ही सकते हैं कि सदस्य देशों ने इसे सिद्धांत रुप में स्वीकार करने का संकेत दे दिया है। इसमें सदस्य राष्ट्रों से आह्वान किया गया है कि वे अपनी भूमि का इस्तेमाल हिंसा फैलाने या आंतकवादी गतिविधियों के लिए न होने दें और आतंकवादियों को मिलने वाली वित्तीय मदद रोकने के लिए कानून बनाएं। कहा जा सकता है कि उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के नेतृत्व में पर्थ गए दल ने अपनी भूमिका का ठीक प्रकार से निर्वहन किया है। बेशक, इन घोषणाओं का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक इसे व्यवहार में न लाने वाले देशों को ठोस कदमों से मजबूर न किंया जा सके। राष्ट्रमंडल जैसे संगठन से अभी ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन एक बार यह औपचारिक प्रस्ताव का अंग बन गया तो फिर इसके विपरीत आचरण करने वाले देशों के खिलाफ आवाज या कदम उठाने का आधार तो बनता ही है। तो कुल मिलाकर पर्थ राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन ने भविष्य की दृष्टि से अच्छे संकेत दिए हैं और इसे विफल करार देना उचित नहीं है। (संवाद)