जब म्यानन्मार और बांग्लादेश रोहिंग्या मुसलमानों को मानव समुदाय मानने के लिए तैयार नहीं है और इन दोनो देशों द्वारा उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है, तो फिर भारत एक ऐसा तीसरा देश दिखाई देता है, जो उनके लिए कुछ आशा की किरण बन सकता है। यहां के कुछ मुस्लिम संगठन भारत सरकार से मांग भी कर रहे हैं कि वे उन्हें समर्थन और सहारा दे।
म्यान्मार से उनका पलायन जारी है। जहां कहीं भी संभावना दिखाई देती है, वे उस ओर भाग लेते हैं। कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल के बरासात रेलवे स्टेशन पर पुलिस ने वैसे 12 रोहिंग्या मुसलमानों को पकड़ा। वे वहां से उत्तर भारत काम और अपनी नई जिंदगी के लिए जा रहे थे। उसके पहले सिंगापुर प्रशासन ने रोहिंग्या की 40 सदस्यीय एक टीम को अपने तट से खदेड़ दिया था। वे एक नाव से वहां पहुंच रहे थे। वियतनाम के मछुआरों से सिंगापुर के सुरक्षा बलों को उन्हे वहां से भगाने में मदद की। बांग्लादेश पुलिस ने भी कुछ दिन पहले 85 रोहिंग्या को अपने इलाके से खदेड़ दिया। वे भी एक नाव के द्वारा बांग्लादेश की सीमा मे प्रवेश कर रहे थे। वे 48 घंटे से भूखे थे। उनमें महिलाएं और पुरूष दोनों शामिल थे। 900 लोगों ने थाइलैंड में भी शरण लेने की कोशिश की थी। पता नहीं चल पाया है कि उनमें से कितने लोग सफल हुए।
अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम समुदाय ने जहां म्यान्मार में हिंसा और भेदभाव के शिकार साढ़े सात लाख रोहिंग्या लोगों के प्रति अपनी चिंता दिखाई है, वहीं बांग्लादेश का रवैया विचित्र बना हुआ है। उनका यह रवैया इस तथ्य के बावजूद है कि वे रोहिंग्या मुसलमान मूल रूप से वहीं के हैं और बर्मा वहीं से गए थे। वे बांग्ला बोलते हैं और उनकी संस्कृति बांग्लादेश के लोगों से मिलती जुलती है। इसके बावजूद उन्हें बांग्लादेश से किसी प्रकार की राहत नहीं मिल रही है।
बांग्लादेश का कहना है कि उसने पहले से ही ढाई लाख रोहिंग्या मुसलमानों को कोक्स बाजार में शरण दे रखी है। उन्हें शरणार्थी शिविरो में रखा गया है। मलेशिया के कैंपों मे भी 90 हजार शरणार्थी हैं। लेकिन म्यान्मार और बांग्लादेशी प्रशासन ने उनके प्रति एक समान कानूनी रवैया अपना रखा है।
म्यान्मार में 1954 में की गई एक आंशिक जनगणना के मुताबिक अराकन (रखिने) प्रांत में 56 फीसदी बौद्ध थे और 41 फीसदी मुसलमान थे। 1930 और 1938 में बर्मा में भारत विरोधी दंगे हुए थे और उनमें सैकड़ो गैर बर्माई मारे गए थे। 50 हजार गैर बर्मी उस समय रंगपुर और चिट्टगांव जिले में शरण लेने के लिए आ पहंुचे थे। बांग्लादेश प्रशासन का कहना है कि वे सभी लोग बर्मी नागरिकता वाले थे। उस समय बर्मा में नारा लगाया जा रहा था कि बर्मी लोगों का बर्मा।
बर्मा यानी म्यान्मार का नागरिकता कानून वर्तमान रोहिंग्या समस्या की जड़ में है। इस कानून के द्वारा 1823 के पहले बर्मा में रह रहे लोगों के वंशजों को ही वहां का पूर्ण नागरिक माना जाता है। गौरतलब है कि 1823 में बर्मा ब्रिटेन के कब्जे में आया था। 1948 में बर्मा को ब्रिटेन से आजादी मिली। आजादी के बाद जो संविधान बना उसके मुताबिक 1823 से 1948 के बीच बर्मा में आए लोगों और उनके वंशजों को एसोसिट नागरिक माना गया। रोहिंग्या मुसलमान इसी दौरान वहां हिंदुस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से आए थे। बाद में एसोसिएट नागरिकों को भी पूर्ण नागरिकता देने का कानून बना, लेकिन बंगला बोलने वाले रोहिंग्या मुसलमानों को उनसे बाहर रखा गया। 1982 के एक कानून के कारण ऐसा हो रहा है। वह कानून अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के खिलाफ है।
बांग्लादेश ने भी 1982 में ही एक ऐसा कानून बना रखा है जिसके कारण शरणार्थियों को नागरिकता नहीं दी जा सकती। इसके कारण वहां रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों को भी नागरिकता नहीं मिली है। उनकी कई पीढि़यां वहीं पैदा हुई हैं, फिर भी वे बांग्लादेश के नागरिक नहीं है।
जाहिर है, बांग्लादेश का रवैया भी उतना ही आपत्तिजनक है, जितना बर्मा का रवैया। पश्चिम एशिया के देश और पाकिस्तान बांग्लादेश से बार बार अपील कर रहे हैं कि वे रोहिंग्या मुसलमानों को अपने देश में शरण दें, लेकिन वहां का प्रशासन इसके लिए तैयार नहीं। वह कहता है कि उसके यहां पहले से ही ढाई लाख रोहिंग्या शरणार्थी हैं और वे बर्मा प्रशासन से मांग कर रहे हैं कि उन्हें वापस लिया जाय।
इस तरह बांग्लादेश और बर्मा की सरकारों के रवैये का रोहिंग्या शिकार हो रहे हैं। वे फिलहाल कहीं के नहीं हैं। (संवाद)
रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या का कोई अंत नहीं
दुनिया में कोई भी देश उनका नहीं है
आशीष बिश्वास - 2013-01-28 13:45
रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या का कोई अंत दिखाई नही पड़ रहा है। म्यान्मार से उन्हें निकाला जा रहा है। वे वहां से भागकर बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश करते हैं। उन्हें वहां से भी वापस खदेड़ दिया जाता है। सिंगापुर में शरण लेने की उनकी कोशिश भी विफल हो रही है। उन्हें वहां से भी भगा दिया जाता है। अब उनके पास जाने के लिए कोई देश नहीं है। दुनिया में ऐसा कोई समुदाय नहीं है, जिसकी हालत रोहिंग्याई मुसलमानों जैसी हो।