लेकिन राजपक्षे की उम्मीद को एक झटका और लगा। उनकी पार्टी संसदीय चुनाव हार गई। संसद में कुल 225 सीटें हैं और उनमें से 95 पर ही राजपक्षे के गठबंधन यूनाइटेड पीपल्स फ्रीडम एलायंस की जीत हुई। पूर्व प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे की यूनाइटेड नेशनल पार्टी को 106 सीटें मिलीं। उन्हें तमिल नेशनल एलायंस के 16 और जनता विमुक्ति पेरामुना के सांसदों का भी समर्थन मिल रहा है। उनके समर्थन से विक्रमसिंघे का दूसरी बार प्रधानमंत्री बनना तय है।
राजपक्षे की जीत श्रीलंका द्वीप में राजनैतिक संकट का कारण बन सकता था, क्यांेकि वहां के राष्ट्रपति श्रीसेना ने चुनाव नतीजा आने के पहले कहा था कि वे किसी भी सूरत में राजपक्षे को प्रधानमंत्री के पद पर शपथग्रहण नहीं कराएंगे। इस नतीजे उस दोमुही स्थिति को भी समाप्त कर दिया है, जिसमें राष्ट्रपति को संसदीय बहुमत नहीं मिला करता था और संसद का बहुत कार्यपालिका से बाहर हुआ करता था। श्रीसेना श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के प्रधानमहासचिव हुआ करते थे और राजपक्षे की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे। जनवरी चुनाव के दो महीना पहले वे राजपक्षे से अलग हो गए और उनके खिलाफ विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार बनकर राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें पराजित करने में सफल हो गए।
राजपक्षे के नौ साल के शासन में अधिनायकवादी प्रवृति का बोलबाला था और उन्होंने सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित कर रखी थी। उनके परिवार का भी शासन में बहुत हस्तक्षेप हो रहा था। उनके शासनकान में लिट्टे का खात्मा हुआ और तमिल नागरिकों का नरसंहार भी हुआ। लेकिन भारत के लिए उनका शासनकाल सबसे ज्यादा चिंता का कारण इसलिए रहा, क्योंकि वे चीनपरस्त थे। भारत को चिंता में डालते हुए राजपक्षे ने चीन की पंडुब्बियों को दो बार अपने देश के बंदरगाह का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी थी। उसके आसपास ही भारत के सैन्य प्रतिष्ठान और परमाणु प्रतिष्ठान भी हैं। वहां चीन की पंडुब्बियों के होने से भारत की धड़कने बढ़ गई थीं।
श्रीसेना ने श्रीलंका की विदेश नीति में आए चीनी रूझान को कम किया। सत्ता में आते ही उन्होंने घोषणा की कि वे चीन द्वारा वित्तपोषित सभी परियोजनाओ की फिर से समीक्षा करेंगे। संसदीय चुनाव के पहले चीन उम्मीद कर रहा था कि राजपक्षे प्रधानमंत्री के रूप में फिर सत्ता मे आ जाएंगे। लेकिन उनकी हार ने चीन के श्रीलंका में अपनी पैठ बढ़ाने के मंसूबे को पराजित कर डाला है।
लेकिन श्रीसेना को सावधानी से आगे बढ़ना होगा। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि राजपक्षे को बौद्ध धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल है। उन धार्मिक नेताओं को श्रीलंका के अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों से बहुत चिढ़ है। बौद्ध धर्म अहिंसा का पाठ पढ़ाता है, लेकिन सच यह भी है कि बौद्ध भिक्षुओं ने अनेक बार मुसलमानों पर हमले का नेतृत्व किया है।
पश्चिमी पर्यवेक्षको की माने तो श्रीलंका में तमिलो और सिंहालियों के बीच 25 साल तक चले खूनी संघर्ष के लिए उग्र बौद्ध धर्म ही जिम्मेदार रहा है। बौद्ध भिक्षुओं के राजनैतिक प्रभाव वहां की सत्ता पर बहुत ज्यादा रहे हैं। श्रीसेना के खिलाफ अपनी राजनीति में राजपक्षे उन धार्मिक नेताओ का इस्तेमाल कर सकते हैं। (संवाद)
राजपक्षे की हार से दिल्ली को राहत
श्रीसेना के कार्यकाल में भारत-श्रीलंका संबंध सुधरेंगे
बरुण दास गुप्ता - 2015-08-24 11:57
श्रीलंका संसदीय चुनाव के नतीजे भारत के लिए राहत की सांस लेने का कारण बनकर आए हैं और दूसरी तरफ वे चीन के लिए दुहरा झटका हैं। इस चुनाव में महिंदा राजपक्षे की पार्टी की हार हुई। गौरतलब हो कि राजपक्षे राष्ट्रपति के रूप में श्रीलंका की सत्ता पर 9 सालों से काबिज थे। इसी साल जनवरी महीने में राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव में उनकी मैत्रीपाल सिरीसेना के हाथों हार हो गई थीं। उस हार के बाद महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता में एक बार फिर आने के लिए संसदीय चुनाव में गंभीर प्रयास कर रहे थे।