सऊदी अरब अपनी सीरिया नीति में बुरी तरह पिट गया है। उसने 24 मुस्ल्मि देशों का एक फोरम बनाना चाहा, वहां भी वह सफल नहीं हो पाया। वह कच्चे तेल की घटती कीमतों के कारण भीषण आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। पिछले साल 2015 में उसका राजकोषीय घाटा करीब 98 अरब डाॅलर का था। चालू वर्ष में उसने अपने खर्च में 86 अरब डाॅलर कम करने का निर्णय किया है। खर्च कम होने से लोगों के बीच असंतोष फैलेगा। कई कल्याणकारी कार्यों को उसे बंद करने होंगे। प्रशासन अनेक प्रकार की कल्याणकारी सेवाएं प्रदान कर लोगों का समर्थन हासिल करता है। वे कम होने से उनके खिलाफ आक्रोश भड़क सकता है। यही कारण है कि राज परिवार के लोग अनिश्चय भरा भविष्य का सामना कर रहे हैं।
यही कारण है कि शिया धर्मगुरू को मौत की सजा देने के बाद यह साफ साफ संकेत जा रहा है कि सऊदी अरब का सत्तारूढ़ परिवार लोगों से अपना संपर्क गंवाने की समस्या का सामना कर रहा है। उसका असली उद्देश्य लोगों के असंतोष को दबाए रखना है और असली मुद्दों से उनका ध्यान भटकाना है।
क्रांति के पहले ईरान और सऊदी अरब पश्चिम एशिया में अमेरिकी नीति के दो मजबूत खंभे हुआ करते थे। इसके कारण दोनों के बीच अच्छे संबंध बने हुए थे। पर अब स्थिति बदल गई है। इराक में सद्दाम के पतन के बाद वहां सुन्नी की जगह शिया सेक्ट का शासन हो गया है और उसे ईरान का समर्थन हासिल है, जिसे सऊदी अरब पचा नहीं पा रहा है। वह वहां सुन्नी लड़ाकों को शिया प्रशासन के खिलाफ समर्थन भी करने लगा।
सऊदी अरब की आलोचना कट्टरवादी इस्लाम की पैरवी करने के कारण होती रही है। उधर इस्लामिक स्टेट भी उसी लाइन पर चल रहा है। दोनों के इस्लाम में कोई खास अंतर नहीं है, लेकिन सऊदी अरब अब इस्लामिक स्टेट से खतरा महसूस कर रहा है। इस्लामिक स्टेट से उसे अपनी अस्थिरता का खतरा सता रहा है।
ईरान के साथ सऊदी अरब का तनाव चल रहा है। यदि उस तनाव पर नियंत्रण नहीं पाया गया, तो इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सऊदी वहां अपने हितों को पूरा होते देखना चाहता और यदि ईरान भी ऐसा ही करता रहा, तो आने वाले दिनों में पश्चिम एशिया भारी अस्थिरता और हिंसा का अखाड़ा बना रहेगा।
सऊदी चाहता है कि वह सीरिया के लोगों का चहेता बने और ईरान को अमेरिका के गुड बुक से बाहर कर दे। लेकिन उधर ईरान और अमेरिका में आपसी सहयोग बढ़ रहा है। इराक और सऊदी अरब में अमेरिका ने ईरान के साथ मिलकर कुछ अभियान भी चलाए हैं। इराक में ईरानी सेना को अमेरिका ने हवाई सुरक्षा प्रदान की, तो सीरिया की बातचीत में भी उसे शामिल कर लिया है। लेकिन सऊदी चाहता है कि ईरान की भूमिका उसमे नहीं हो। यही कारण है कि वह धार्मिक भावनाओं को भड़का रहा है। इसमें वह सफल भी हुआ, क्योंकि जिस तरह की प्रतिक्रिया वह शिया धर्मगुरू को मौत की सजा देने के बाद ईरान की ओर से चाहता था, ईरान ने कुछ वैसा ही प्रतिक्रिया दी। यदि ईरान ने प्रतिक्रिया देने में संयम बरता होता, तो सऊदी के इरादे नाकाम हो सकते थे। उस प्रतिक्रिया के बाद सूडान, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात ने ईरान से अपने संबंध तोड़ लिए हैं।
पश्चिम एशिया मे हो रहे इस खेल के लिए मुख्य रूप से अमेरिका ही जिम्मेदार है, जिसकी गलत नीतियों के कारण इस्लामिक स्टेट खड़ा हो गया है। सद्दाम के पतन के बाद उसकी तीस हजार जवानों की सेना को उसने बेरोजगार छोड़ दिया और बुश ने इस्लामिक स्टेट खड़ा कर दिया। उन बेरोजगार सैनिकों के पास हथियार भी थे और तनख्वाह देने वाला एक संगठन भी उन्हें मिल गया। साथ ही साथ अमेरिका ने अपनी सेना को इराक से हटा लिया। फिर क्या था, सद्दाम के सैनिकों ने इस्लामिक स्टेट के बैनर के नीच सीरिया और इराक के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया है। (संवाद)
सऊदी ने मुस्लिम देशों को युद्ध की ओर धकेला
अमेरिका को जिम्मेदारी लेनी होगी
अरुण श्रीवास्तव - 2016-01-14 11:58
सऊदी अरब को पता था कि यदि उसने शिया के धर्मगुरू शेख निम्र को मौत की सजा दी, तो उसका परिणाम घातक होगा। उसके बावजूद ने उसने वैसा किया, तो इसके क्या कारण हो सकते हैं? यह मानने का कोई कारण नहीं है कि सऊदी को नहीं पता था कि उसका क्या परिणाम होगा। इसका मतलब है कि उसने जानबूझकर वैसा किया और उसके पीछे उसकी एक सोची समझी रणनीति थी। सऊदी सरकार जानबूझकर धार्मिक उन्माद पैदा करना चाहता था ताकि सऊदी लोगांे के बीच सत्तारूढ़ परिवार की स्थिति मजबूत बने। इस तरह का निर्णय सत्ताधारी लोग लेते रहते हैं। खासकर ऐसा वे तब करते हैं, जब देश में सामाजिक, राजनैतिक अथवा आर्थिक उथल पुथल का दौर रहता है।