यह सच है कि मोसुल की हार इस्लामिक स्टेट एक बहुत बड़ी हार है, लेकिन यह हार उसके सफाए का सबूत नहीं। मोसुल में ही बगदादी ने अपने आपको दुनिया भर के मुसलमानों का खलीफा घोषित किया था। जिस ऐतिहासिक मस्जिद से उसने अपने आपको खलीफा घोषित किया था, वह मस्जिद और उससे जुड़ा एक ऐतिहासिक मीनार जमींदोज हो चुका है, लेकिन इस्लामिक स्टेट के इरादे जमींदोज होना अभी बाकी है।
अभी से तीन साल पहले मोसुल को इस्लामिक स्टेट ने फतह कर लिया था। उसके महज कुछ लड़ाकों ने ही इराकी सेना के प्रशिक्षित और संख्या में ज्यादा जवानों को वहां से खदेड़ दिया था। फिर तो इराक के एक बहुत बड़े इलाके पर इस्लामिक स्टेट का कब्जा हो गया था। वह इलाका सुन्नी बहुल इलाका है। इस्लामिक स्टेट भी सुन्नियों का ही संगठन है, जो इराक के सत्ताधारी शियाओं के खिलाफ है। यही कारण है कि सुन्नी बहुल इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित करने मंे इस्लामिक स्टेट को दिक्कत नहीं हुई।
पर नियंत्रण स्थापित करना एक बात है और उस नियंत्रण को बरकरार रखना बिल्कुल अलग बात है। इस्लाम के जिस नियम कायदे को लागू करने की कोशिश इस्लामिक स्टेट कर रहा था, वह वहां के लोगों को भी मंजूर नहीं था। जाहिर है, स्थानीय लोगों का समर्थन उसे घटने लगा। बाहरी ताकतें भी उसके खिलाफ सक्रिय थीं और उन ताकतों के सामने इस्लामिक स्टेट ज्यादा दिनों तक टिक ही नहीं सकता है।
इसलिए वही हुआ, जिसे होना था। इराकी सेना ने अपने सहयोगियों की सहायता से 9 महीने के अंदर ही मोसुल को इस्लामिक स्टेट के नियंत्रण से मुक्त करा लिया। मोसुल इराक का दूसरा सबसे बड़ा महानगर है और इसकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। मोसुल भले ही इस्लामिक स्टेट की घोषित राजधानी नहीं रही हो, लेकिन यही खलीफा बगदादी का अड़डा था और जनसंख्या के लिहाज से मोसुल इस्लामिक स्टेट की राजधानी रक्का से भी बड़ा महानगर है। गौरतलब हो कि रक्का इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक एंड सीरिया की राजधानी है और वह सीरिया में है।
फिलहाल रक्का अभी भी इस्लामिक स्टेट के कब्जे में है और उसे उसके कब्जे से मुक्त कराने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में एक बड़ी सैनिक कार्रवाई चल रही है। अमेरिका मोसुल में चल रही कार्रवाई का भी हिस्सा था, लेकिन इसमें कार्रवाई का नेतृत्व इराक की सेना के हाथ में था और अमेरिका की भूमिका सहायक की थी। अमेरिका हवाई हमले से जमीन पर काम कर रही इराकी सेना की सहायता करता था। शिया मिलिशिया भी इराकी सेना के साथ थी और उस मीलिशिया मे ईरान के लोग भारी संख्या में शामिल थे। कहा तो यहां तक जाता है कि शिया मिलिशिया के नाम पर ईरान की सेना ही इस्लामिक इस्टेट के खिलाफ चल रहे उस युद्ध में शामिल थी।
बहुत मशक्कत, खून खराबे और विनाश के बाद मोसुल को मुक्त कराया जा सका है। इस अभियान के पूरा होने के पहले ऐतिहासिक नूर मस्जिद और उसके साथ लगा मीनार घ्वस्त हो गया है और शहर का पश्चिमी इलाका लगभग खंडहर में तब्दील हो चुका है। इस ऐतिहासिक शहर में इस तरह की तबाही सदियों बाद हुई है। इसके पुनर्निमाण में अभी वर्षों लगेंगे, लेकिन क्या आने वाले वर्षो में इराक इस पर अपना कब्जा बरकरार रख पाएगा या यह एक बार फिर इस्लामिक स्टेट या सुन्नियों के किसी और संगठन की गिरफ्त में आ जाएगा?
दरअसल इराक में सुन्नी और शिया दोनों की बड़ी आबादी है। सद्दाम हुसैन सुन्नी थे, लेकिन वे सुन्नियों के साथ साथ शियाओं को भी अपने साथ रखने मे कामयाब थे। शियाओं और सुन्नियों की लड़ाई सदियों पुरानी है, लेकिन सद्दाम के कार्यकाल में दोनों के बीच एक संतुलन कायम था और उसका एक कारण सद्दाम द्वारा शासन करने का तानाशाही तरीका भी था।
सद्दाम के पतन के बाद अमेरिका के संरक्षण में इराक में शियाओं का शासन हो गया है। इसके कारण दोनों समुदायों के बीच का पुराना संतुलन समाप्त हो गया है। अब सुन्नी अपने को शासित समझते हैं और शिया अपने को शासक। इसका फायदा उठाकर इस्लामिक स्टेट ने सुन्नियों के बीच अपनी पैठ बनाई और सुन्नी बहुल इलाकों को अपने नियंत्रण में लेने मे ज्यादा समय नहीं लगा। लेकिन इस्लामिक स्टेट इस्लाम की वह किताबी समाज व्यवस्था वहां स्थापित करना चाहता था, जो मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में संभव ही नहीं है। वह अल्पसंख्यकों का भी दुश्मन बना हुआ था और उनके साथ मध्यकालीन व्यवहार करता था।
इसके कारण इराक और सीरिया के एक बड़े हिस्से पर कब्जे करने के बावजूद इस्लामिक स्टेट न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मान्यता पा सका और न ही इलाके के सुन्नियों का वह विश्वास बनाए रख सका, जिस विश्वास के साथ उन्होंने बगदादी के लड़ाकों को समर्थन दिया था। इस्लामिक स्टेट का उद्देश्य भी सिर्फ सीरिया और इराक तक सीमि नहीं था, बल्कि वह पूरी दुनिया के मुसलमानों का नेतृत्व करना चाहता था और पूरी दुनिया को ही मुस्लिम दुनिया में तब्दील करने की तमन्ना रखता था। इसके लिए वह दुनिया भी मंे आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा है। पाकिस्तान में कई बार वह मस्जिदों और मजारों को खून से रंग चुका है। अमेरिका और यूरोप में भी वह खून खराबा करवा चुका है और इंडोनेशिया और फिलिपिन भी उसके आतंक की जद में आ चुके हैं।
मोसुल से पांव उखड़ने के बाद इस्लामिक स्टेट को निश्चय ही एक बड़ा झटका लगा है और उसके कारण अब दूसरे देशों से उसके साथ जुडने के लिए आने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत ही कम हो जाएगी। उसके कारण उसके पास धन का संकट भी हो सकता है, क्योंकि मोसुल और उसके आसपास की आबादी उसके लिए राजस्व का पाने का भी जरिया थी। तेल के कुओं पर से भी उसका नियंत्रण समाप्त होगा। लेकिन इस्लामिक स्टेट अब इराक और सीरिया से बाहर भी अपना विस्तार कर चुका है। इसलिए उसका खतरा आने वाले दिनों में भी बना रहेगा। (संवाद)
मोसुल फतह और उसके बाद
आईएसआईएस का खतरा बना रहेगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-07-11 12:06
इराक के प्रधानमंत्री जब मोसुल फतह की घोषणा कर रहे थे, उसी समय टिगरिस नदी के किनारे आईएसआईएस के लड़ाकों द्वारा चलाई जा रही गोलियों की आवाज भी सुनी जा रही थी। यानी जीत के जश्न के बीच पराजित पक्ष के इरादे की गूंज भी सुनी जा सकती थी। जाहिर है, मोसुल फतह का जश्न कोई स्थाई जश्न नहीं है। अभी भी इस्लामिक स्टेट के फिर से उभर आने का खतरा बना हुआ है।