जाहिर है, रोहिंग्या समस्या सिर्फ म्यान्मार की समस्या नहीं रही। इससे बांग्लादेश परेशान है, जहां पहले से ही 5 लाख रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। कहा जा रहा है कि म्यान्मार में ताजा हिंसा के बाद दो लाख से भी ज्यादा शरणार्थी बांग्लादेश में और भी जा चुके हैं। शरणार्थी म्यान्मार के अन्य पड़ोसी देशों मंे भी हैं और लाखों शरणार्थी तो मौत के मुह में समा गए हैं। उनकी समस्या बहुत ही दर्दनाक है। हिंसा से त्रस्त होकर वे म्यान्मार से भागते हैं और जिन पड़ोसी देशों में जाते हैं, वहां से भी उन्हें खदेड़ दिया जाता है। कम क्षमता वाली नावांे में जरूरत से ज्यादा लोग बैठ जाते हैं और बंगाल की खाड़ी मे डूब जाते हैं और कभी कभी तो डूबो भी दिये जाते हैं।
आखिर उनकी समस्या क्या है और वे कौन लोग हैं? वे म्यान्मार के रखाइन प्रदेश के पश्चिमी भाग में रहते हैं। वे बंगाली भाषा बोलते हैं। उनकी कुल आबादी 20 लाख है, जिनमें 10 लाख तो दूसरे देशों में शरणार्थी बनकर रह रहे हैं। अकेले बांग्लादेश में 5 लाख रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं। उनमें 95 प्रतिशत लोग मुस्लिम हैं और शेष 5 फीसदी हिंदू हैं। वे अपने को रोहिंग्या कहते हैं और म्यान्मार का नागरिक बताते हैं, लेकिन म्यान्मार के 1982 के संविधान ने उन्हे नागरिक मानने से इनकार कर दिया है। म्यान्मार की सरकार उन्हे बांग्लादेशी शरणार्थी मानती है, लेकिन बांग्लादेश उन्हें बांग्लादेशी मानने से इनकार कर रहा है। यानी रोहिंग्या की हालत आज राज्यविहीन इंसान की हो गई है, जिन्हें अपना मानने को कोई देश तैयार नहीं है।
म्यान्मार के रखाईन क्षेत्र को बांग्लाभाषी लोग रोहांग कहा करते थे इसलिए रखाईन के ये बांग्लाभाषी अपने को रोहिंग्या बोलते हैं। रखाईन पाली भाषा के रक्खापुर से से पना है। रक्खापुर संस्कृत के राक्षसपुर का पाली अनुवाद है। यानी भारत के लोग वहां के लोगों को सुदूर अतीत में राक्षस कहा करते थे और उनकी भूमि को राक्षसपुर कहा करते थे। उसी से उस क्षेत्र का नाम रखाईन पड़ा है। बंगाल में वही रखाईन रखांग और रोखांग होते हुए रोहांग हो गया है और वहां के बांग्लाभाषी अपने को रोहिंग्या कहते हैं।
यह सच है कि ये बांग्लाभाषी मूल रूप से रखाईन के निवासी नहीं है। ये वे लोग नहीं हैं, जिन्हें भारतीय साहित्य में राक्षस कहा गया है, बल्कि ये वे लोग हैं, जो पहले बंगाल ( वर्तमान बांग्लादेश) में रहा करते थे, लेकिन पिछले कई सौ सालो से वहां रह रहे हैं। जब अंग्रेज आए थे, तब भी रखाईन में उन्होंने रोहिंग्या को रहते देखा था। वे उन्हे रुंग्या कहते थे। 1824 में जब म्यान्मार पर अंग्रेजों ने कब्जार कर लिया, तो वे उसके पश्चिमी रखाईन में बंगालियों को वहां की जमीन को विकसित करने और खेती करने के लिए भेजने लगे। यानी उसके बाद वहां बंगाली भाषी भारतीयों की संख्या बढ़ने लगी।
1824 से 1938 तक म्यान्मार ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा था। उस समय बंगाल और म्यान्मार दोनों एक ही देश भारत का हिस्सा माना जाता था, इसलिए बांग्लाभाषी रोहिंग्या को नागरिकता संबंधी कोई समस्या नहीं थी और स्थानीय लोगों के साथ प्रेभ भाव नहीं होने के बावजूद उनसे कोई संघर्ष नहीं हुआ करता था, लेकिन म्यान्मार को ब्रिटिश इंडिया से अलग करके बिटिश बर्मा नाम का एक अलग देश बनाने के बाद स्थानीय बर्मी लोगों के साथ रोहिंग्या का टकराव बढ़ने लगा। स्थानीय बर्मी लोग उन्हें विदेशी मानने लगे। बर्मी बौद्ध थे, जबकि रोहिंग्या मुख्य रूप से मुस्लिम थे।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान स्थानीय बर्मी लोग जापान का साथ दे रहे थे और रोहिंग्या मुसलमानों को ब्रिटेन ने अपनी सेना में शामिल कर लिया। तब सेना में शामिल रोहिंग्या मुसलमानों ने स्थानीय बर्मी लोगों पर काफी अत्याचार किए और दोनों के बीच भारी खूनखराबा हुआ। आज की समस्या का मुख्य कारण 1942 में उन दोनों के बीच हुआ वही खूनखराबा मुख्य रूप से जिम्मेदार है। जब भारत आजाद हो रहा था और यहां मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग कर रही थी, तो रोहिंग्या के मुसलमानों ने भी अपने लिए अलग देश या पाकिस्तान में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की थी। उन्होंने इसके लिए मुहम्मद अली जिन्ना से समर्थन मांगा था, लेकिन जिन्ना ने उनकी मांग को यह कहकर ठुकरा दिया कि उनकी ऐसी हैसियत नहीं है कि वे उनकी मांग का समर्थन कर सके। रखाईन बर्मा का हिस्सा था और उस समय उसकी आजादी अंग्रेजों के एजेंडे में नहीं था, इसलिए जिन्ना अंग्रेजों से एक नया मोर्चा नहीं खोलना चाहते थे।
बर्मा 1948 में आजाद हुआ और उसने अपना नाम बाद में बदलकर म्यान्मार कर दिया। आजादी के बाद स्थानीय बौद्ध आबादी और मुस्लिम बांग्लाभाषी रोहिंग्यों के बीच तकरार बढ़ता गया और 1982 में तो उन्हें म्यान्मार की नागरिकता से ही वंचित कर दिया गया। उसके बाद तो हिंसा आम बात हो गई है। रोहिंग्या मुसलमानों के अनेक संगठन बन गए हैं और वे अपने लिए एक अलग देश की मांग करते रहते हैं। वे ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, जबकि स्थानीय बर्मी आबादी मैदानी इलाकों मंे रहती है। आज वे रोहिंग्या वहां अल्पमत में हैं, लेकिन यदि दूसरे देशों में शरणाथी के रूप में रह रहे लोग वापस आ जाएं, तो वे वहां के बहुमत हो जाएंगे। फिलहाल स्थिति ऐसी है कि वहां जो रह रहे लोग हैं, उनका भी बने रहना कठिन हो रहा है, तो फिर शरणार्थियों की वापसी संभव नहीं लगती। सच तो यह है कि म्यान्मार की सरकार भी वहां रह रहे रोहिंग्या को शरणार्थी ही मानते हैं। उनकी समस्या को हल करना विश्व समुदाय के सामने एक बड़ी चुनौती है। (संवाद)
जरूरी है रोहिंग्या समस्या का समाघान
विश्व समुदाय को कुछ न कुछ करना होगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-09-12 12:36
रोहिंग्या मुसलमानों का मसला अब भारत के लिए भी सिरदर्द साबित होने लगा है। यहां भी करीब 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं और उनको यहां से निकाले जाने को लेकर राजनीति हो रही है। हिन्दू संगठन उन्हें यहां से बाहर करने की मांग कर रहे है, तो मुस्लिम संगठन उन्हे शरण देने की फरियाद कर रहे हैं। मामला कोर्ट तक में पहुंच चुका है और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक इस मामले मे कूद चुका है। कहा जा रहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रावधानों के तहत भारत उन शरणार्थियों को यहां से जबर्दस्ती मरने के लिए बाहर नहीं भेज सकता।