किसी भी लोकतांत्रिक देश में वैचारिक आजादी पर प्रतिबंध अच्छी बात नहीं। भारत में संविधान के मूल अधिकारों में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार वर्णित है। अनुच्छेद 19 ए हमें यह अपनी बात रखने की आजादी प्रदान करता है। जबकि अमेरिका और इंग्लैंड में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अलग से कानून बनाए गए हैं। जिसकी वजह से वहां की पत्रकारिता उच्च मानदंड़ों का अनुसरण करती है। सीरिया और तुर्की में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में बेहद बुरे हालात है। वहां पत्रकारों की हत्या और जेलों में ठूंसना आम बात है।

दुनिया भर में हाल के सालों में पत्रकारों पर बढ़ते हमले और हत्याएं प्रेस की स्वतंत्रता पर सवालिया निशान उठाते हैं। सत्ता और प्रेस के बीच टकराहट आम बात हो गयी है। कई देशों में प्रेस की स्वतंत्रता पर राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में प्रतिबंध लगाने का भी कुचक्र रचा जाता है। प्रेस और सरकारों के बीच अक्सर तालमेल का अभाव दिखता है। भारत में भी इंदिरा राज में 1975 में आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता यानी अभिव्यक्ति की आजादी पर तीखा हमला हुआ था।

अखबारों को सरकार के खिलाफ लिखना मंहगा पड़ा। कई अखबारों के कार्यालयों पर सरकारी ताले लग गए और कई को अपना प्रकाशन बंद करना पड़ा। अमेरिकी राष्टपति डोनाल्ड टंªप अमेरिकी मीडिया को आए दिन उसकी निष्पक्षता को लेकर सवाल खड़े करते रहते हैं। हलांकि सोशल मीडिया की वजह से अब यह स्थिति नहीं है, लेकिन प्रेस पर कारपोरेट जगत का बढ़ता एकाधिकार अघोषित रुप से अभिव्यक्ति की आजादी को प्रभावित करता हैए जिसका असर इलेक्टानिक और परंपरागत मीडिया को प्रभावित कर रहा है। भारत में बड़े मीडिया हाउसों पर कारपोरेट घरानों का कब्जा है। वह प्रेस को व्यवसाय के रुप में देखते हैं। आधुनिक युग में अपने संस्थान को हाईटेक करने के लिए पैसा लगाते तो उसकी वसूली भी उन्हें करनी होती है। लिहाजा वह सरकार से सीधी जंग नहीं लेना चाहते हैं बल्कि तालमेल बना कर चलते हैं और प्रेस पर अघोषित रूप से एक नियंत्रण और संतुलन बनाए रखते हैं।

आधुनिक युग की पत्रकारिता से सीधे आर्थिक स्वरुप से जुड़ गई है। मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष तौर पर सरकारों के काम काज की आलोचना करने के बजाय संतुलन का रास्ता निकालती है। जिसकी वजह है मुक्त मीडिया यानी सोशलमीडिया अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गया है और यह आम से खास लोगों े बीच खासी लोकप्रिय हो रही है। क्योंकि यहां किसी का दबाब नहीं और अपनी बात रखने के लिए न ही किसी प्रकार की कोई सेंसरशिप है। आधुनिक दौर में यह माध्यम इतना मजबूत हो चला है कि सरकारों की चूल्हें हिलाने की तागत रखता है। अक्सर देखा गया है कि जो बात चाहते हुए भी मीडिया सरकारों के खिलाफ नहीं लिख पाती उसे सोशल मीडिया बारुद की तरह बिखेर देती हैं, बाद में उन्हीं खबरों पर मीडिया मजबूर होकर विश्लेषण करती है। वह भी सरकार की नजर में बच बचा कर काम करना चाहती है।दुनिया भर की सरकारें और सत्ता हमेंशा इस तरह का महौल पैदा करना चाहती हैं कि जनता में उनकी छबि कभी नाकारात्म न बने, भले ही उनकी कार्यप्रणाली नकारात्मक और जनप्रियता के खिलाफ हो।

रिपोर्टर्स विद आउट बार्डर्स में 2016 में 57 पत्रकार अपने दायित्व निभाते हुए मारे गए जिसमें 48 पत्रकारों की हत्या हई। इस मामले लगातार सीरिया सबसे शीर्ष स्थान पर बना रहा। एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष सिर्फ सीरिया में 14 पत्रकारो की हत्या की गयी। भारत पत्रकारों के लिए घातक श्रेणी के देशों में दसवें स्थान पर रहा। 1992 से अब तक 40 पत्रकारों की हत्या उनके कार्यों की वजह से हुई जबकि 27 पत्रकारों की हत्या का कोई कारण साफ नहीं हुआ। वैश्विक स्तर पर देखा जाय तो साल 2012 पत्रकारों के लिए सबसे दुष्कर रहा इस दौरान पूरी दुनिया में 74 पत्रकारों की हत्या की गयी। अमेरिकी संस्था कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में इस तरह के अपराध को अंजाम देने वाले 96 फीसदी लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। हलांकि दूसरे सालों के मुकाबले 2017 में पत्रकारों की 14 साल में सबसे कम हत्याएं हुई हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां पत्रकारों को सरकारों की आलोचना करने की पूरी आजादी है। वैश्विक स्तर की बात करें तो पत्रकारों के लिए सीरिया सबसे खतरनाक हैं। तुर्की में सबसे अधिक 39 पत्रकारों की हत्या की गयी। वहीं 39 को जेल भेजा गया। तुर्की पत्रकारों के लिए जेल है।

भारत में बढ़ती मीडिया कर्मियों की हत्या सरकारों को कटघरे में खड़ा करती है। हलांकि इस तरह की हत्याओं के पीछे सरकारों का हाथ भले न हो, लेकिन पत्रकारों की सुरक्षा और हत्याओं को लेकर सवाल खड़े किए जाते हैं। भारत में 2017 पत्रकारों के लिए अशुभ साल रहा इस दौरान यहां कई पत्रकारों की हत्यायें हुई। जिसमें बंेगलुरु महिला पत्रकार गौरी लंकेश और त्रिपुरा के शांतनु भौमिक समेत नौ पत्रकारों को जान गवांनी पड़ी। बिहार में राजीव रंजन सहित दूसरे पत्रकारों को निशाना बनाया गया। इस मामले ने इतना तूल पकड़ा की केंद्रीय गृहमंत्रालय तक को इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए दिशा निर्देश जारी करना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी पत्रकारों की हत्याओं पर बिराम नहीं लगा। अमेरिकी संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट यानी सीपेजे ने मध्यप्रदेश में रेत माफियाओं की तरफ से किए गए संदीप शर्मा की हत्या के पीछे छुपे मकसद को साफ करने को कहा था।, मध्यप्रदेश के भिंड में पंजाब के मोहाली, यूपी के गाजीपुर, हरियाणा में पत्रकारों की हत्याएं हुई हैं। प्रेस की आजादी की वकालत और निगरानी करने वाली संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बाडर्स के अनुसार दुनिया भर में पत्रकारों और स्वतंत्र पत्रकारों पर दबाव बढ़ रहा है। भारत दुनिया में प्रेस की आजादी के मामले में 180 देशों की सूची में 136 वीं रैंक पर आ गया है। बावजूद चीन, पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में इसकी स्थिति अच्छी है। चीन 176 वें और पाकिस्तान 139 वें पर है। ब्रिटेन, अमेरिका और चीली 40, 43 और 33 वें स्थान पर है। भारत, रुस और चीन सहित 72 देशों में प्रेस की आजादी पर खतरा बढ़ रहा है।

भारत में हाल में फेंक न्यूज सरीखे विवादित काननू को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप के बाद खत्म किया। जिसमें फर्जी खबरों के प्रकाशन का दोषी पाये जाने पर संबंधित पत्रकार की मान्यता निलंबित करने का प्राविधान था। सरकार आनलाइन न्यूज पर पर भी शिकंजा कसने जा रही है। क्योंकि सूचना और तकनीकी प्रभाव की वजह से आनलाइन यानी पोर्टल न्यूज का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। भारत के शहरी इलाकों के बजाय ग्रामीणांचल, कस्बों और छोटे शहरों मंे स्वतंत्र पत्रकारिता बेहद जोखिम भरा कार्य है। (संवाद)