प्रबीर ने भारत के वर्तमान राजनीतिक हालात का विश्लेषण करते हुए विश्व राजनीति की इतिहास से भी अवगत कराया। उन्होंने कहा कि आज जिस राष्ट्रवाद की बात कर रहे हैं, वह फ्रांस की क्रांति के बाद आया। राजशाही के बाद यूरोप में सबसे पहले राष्ट्र की अवधारणा आई, जिसमें किसी भौगोलिक सीमा में रहने वाले की पहचान एक नागरिक के रूप में हुई। बाद में जब इसके साथ भाषा एवं धर्म को मिलया गया, तो यूरोप में कई हिंसक लड़ाइयां हुई। दोनों विश्वयुद्ध की जड़ में मुख्य रूप से यहीं कारण रहे हैं। आज भारत में भी धर्म एवं जाति के नाम पर नफरत को बढ़ावा दिया जा रहा है। नागरिकता के मसले को लेकर इतिहास में जिस तरह की लड़ाइयां हुई, उससे सबक लेने के बजाय भारत उसी रास्ते पर चल रहा है। हमारे देश में आज जो सोच हावी हुई है उसके बहुलतावादी राष्ट्र के प्रति सम्मान नहीं है। हाल के दिनों में पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी रूझान बढ़ा है। हमारे देश में भी इस तरह के उभार एक वैधता लेने के लिए संघर्षरत हैं। हम देख रहे हैं कि नेशनल सिटीजन रजिस्टर असम तक सीमित नहीं रहने वाला बल्कि इसको अमेरिकी तर्ज़ पर देश के तमाम अन्य हिस्सों तक विस्तारित किया जाएगा। वर्तमान राजनीतिक माहौल से देश में बर्बरता आएगी। हम इसे अल्पसंख्यकों एवं कमजोर लोगों के साथ की जा रही माॅब लिंचिंग के रूप में देख भी रहे हैं। हम एक ऐसे जानवर को देश में छोड़ रहे हैं, जिस पर लगाम लगाना मुश्किल होगा। यह देश को तोड़ सकता है।

उन्होंने कहा कि डाॅ. अंबेडकर ने जाति विमर्श के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था और तकनीकी विकास का भी विज़न दिया था, लेकिन गोलवलकर के विज़न में आर्थिक विकास का कोई ज़िक्र नहीं है क्योंकि वे इसकी जिम्मेदारी सिर्फ पूंजीपतियों को देने की वकालत करते थे। तकनीकी आत्मनिर्भरता का भी कोई खाका उनके पास नहीं था। इसलिए आज भी जो सत्ताधारी हैं वे पहचान की राजनीति को उभारने के अलावा सिर्फ विकास के भ्रम उपजाते हैं लेकिन विकास नहीं कर पाते। वर्तमान सत्ताधारी वर्ग गलत इतिहास, गलत राजनीति एवं गलत विज्ञान की नींव डाल रहे हैं। इससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खतरा है। आज संघर्ष केवल राजनैतिक नहीं बल्कि लोक संस्कृति को बचाने की लड़ाई बहुत महत्वपूर्ण रूप ले चुकी है। राम के हमारे यहां कई रूप हैं लेकिन आज एक रौद्र रूपी राम को उभार दिया जा रहा है, जो पहले से मौजूद राम की तमाम छवियों से बिलकुल अलहदा है और लोगों को भरमाने के लिए है। हिन्दुस्तान के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी इस्तेमाल कर हम देखें तो हम इनके झूठ को आसानी से पकड़ पाते हैं कि ये कितनी विज्ञानविरोधी सोच को प्रसारित करते हैं जिसका जवाब हम राजनैतिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक समझ को साफ़ करते हुए दे सकते हैं और नफ़रत की राजनीति का मुकाबला भी कर सकते हैं।

उन्होंने विकल्पों की चर्चा करते हुए कहा कि आज हमें सांस्कृतिक लड़ाई लड़नी होगी। वर्तमान दक्षिणपंथी राजनीति का मुकाबला सिर्फ राजनीतिक स्तर पर नहीं की जा सकती है। हमें विज्ञान के मोर्चे पर भी अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। हमारे हाथ में विज्ञान का औजार है, हमारे हाथ में संस्कृति का औजार है। हमें विज्ञान को रचनात्मकता के साथ जोड़ना होगा। यह जिम्मेदारी युवाओं पर है कि वे इसके लिए आगे आएं। अलग-अलग तरह के आंदोलनों को इकट्ठा लाने की जरूरत है। व्यक्तिवाद को छोड़कर हमें एक साथ आना होगा। हमने पहले भी विविधताओं का सम्मान करते हुए जन विज्ञान आंदोलन एवं विश्व सामाजिक मंच जैसे बड़े आंदोलन एवं आयोजन किए हैं। इसमें दक्षिणपंथ एवं नफरत की राजनीति के हर विरोधी को शामिल करना होगा। हमें यह स्थिति अपने आजादी के आंदोलन में भी देखी थी, जब लोग विविधता के साथ आजादी की लड़ाई में शामिल हुए थे। ऐसे आंदोलन में यदि लोग अपने-अपने झंडे-बैनर के साथ आए, तो भी उनकी विविधताओं के साथ उन्हें जोड़ना होगा। हमारे आंदोलन में विविधता दिखनी चाहिए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव एवं जन आंदलनों के साथी शरद चंद्र बेहार का मानना है कि वर्तमान समस्याओं का निदान एक नए विचार का सृजन करते हुए गांधीवादी तौर-तरीकों को अपना कर किया जा सकता है, जिसमें सिर्फ़ बौद्धिक विरोध मात्र न हो बल्कि व्यापक पहल करने लोग भी हों और जिनकी संख्या हजारों में नहीं, लाखों में हो। जनवादी लेखक संघ के मध्यप्रदेश सचिव मनोज कुलकर्णी ने इस कार्यक्रम का संचालन किया। (संवाद)