जैसा कि भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने प्रारंभिक भाषण में कहा, जब इस क्षेत्र में लोगों, वस्तुओं, सेवाओं और विचारों का आदान-प्रदान मुक्त रूप से होने लगेगा, तभी इस क्षेत्रीय सहयोग संगठन को गति मिलेगी और यह क्षेत्र विश्व में अपना प्रभाव छोड़ सकेगा। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इस तथ्य को लेकर चिंतित थे कि क्षमता और संभावना के बावजूद सार्क आसियान और पूर्वी तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य क्षेत्रीय संगठनों के मानिंद अपना अस्तित्व स्थापित नहीं कर सका है। थिम्पू सम्मेलन में आए अन्य देशों के नेताओं की भी यही पीड़ा थी।
वास्तव में, इस क्षेत्रीय संगठन पर भारत-पाकिस्तान के बीच अमधुर सम्बंधों की छाया पड़ती रही है। दोनों देशों के बीच सामान्य और मैत्रीपूर्ण सम्बंधों के अभाव के कारण सार्क देशों के सम्बंधों में सामूहिक रूप से वह रवानी नहीं आ पाई है, जिसको ध्यान में रखकर इस संगठन की बुनियाद 1985 में रखी गई थी। परन्तु थिम्पू सम्मेलन की यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है कि उसके सुरम्य और शांत वातावरण में भारत और पाकिस्तान के सम्बंधों में भी शांति बहाली की संभावना उपजी है। कुछ विध्न संतोषियों को भले ही यह संभावना अभी धूमिल दिखाई दे रही हो, परन्तु यदि पाकिस्तान की ओर से वही संजीदगी दिखाई गई, जिसकी विश्व नेताओं और भारत के लोगों को अपेक्षा है, तो सम्बंधों में आए इस मोड़ से क्षेत्रीय सहयोग भी परवान चढे़गा, यह कहा जा सकता है।
जैसी कि अटकलें लगाई जा रही थीं, थिम्पू में सार्क सम्मेलन से इतर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की मुलाकात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री सैयद युसुफ रजा गिलानी से हुई। करीब 90 मिनट की बातचीत के दौरान दोनों नेताओं के बीच परस्पर वार्ता को जारी रखने का संकल्प व्यक्त किया गया। दोनों पक्षों ने स्वीकार किया कि आपसी मतभेदों को हल करने के लिये बातचीत होनी जरूरी है। नवम्बर 2008 में मुम्बई में हुए आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के बीच सम्बंधों में जो तनाव आ गया था, उसके कारण पहले चल रही समग्र वार्ता प्रक्रिया में भी ठहराव आ गया था। पाकिस्तान के इस आश्वासन के बाद कि 2611 के दोषी लोगों को सजा दिलाने के लिये प्रयास तेज किये जाएंगे, भारत को उम्मीद है कि दोनों देशों के बीच बातचीत, विभिन्न स्तरों पर जारी रहेगी, जिससे शांति भले ही बहाल न हो, दोनों पक्षों में आक्रमकता में कमी जरूर आएगी। पाकिस्तान के संविधान में 18वें संशोधन के बाद प्रधानमंत्री को जो अधिकार मिले हैं, उससे यह उम्मीद जगी है कि श्री गिलानी अपनी बात को ज्यादा वजनदार तरीके से वहां के सत्ता प्रतिष्ठान से मनवा सकेंगे और दोनों देशों के सम्बंधों के सुधार में बाधा पहुंचा रहे आतंकवादी तत्वों को अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे।
दर असल, 16वें शिखर सम्मेलन की मूल विषय वस्तु ही आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन के दोहरे खतरों से दक्षिण एशिया को मुक्त करने की थी। भूटान के प्रधानमंत्री श्री एल जिग्मी थिनले ने अपने उद्घाटन भाषण में ही क्षेत्रीय सहयोग को बढा़वा देने के लिये सदस्य देशों के एकजुट प्रयास पर जोर दिया था। उन्होंने कहा कि आतंकवाद के जरिये किसी भी उद्देश्य अथवा लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के कारण बढ ऱहे खतरे के प्रति भी न केवल भूटान ने, बल्कि अन्य सदस्यों ने भी चिंता जताते हुए इस दिशा में मिलकर काम करने का आह्वान किया। बांग्लादेश और मालदीव के प्रधानमंत्रियों ने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाव के लिये और अधिक दृढ स़ंकल्प की आवश्यकता पर जोर दिया।
आठ देशों के संगठन सार्क ने वृहस्पतिवार को शिखर सम्मेलन की समाप्ति से पहले जिस घोषणा पत्र पर सहमति जतायी, "हरित और खुशहाल" दक्षिण अफ्रीका का निर्माण उसमें सर्वोपरि था। जलवायु परिवर्तन के अलावा परस्पर व्यापार को बढा़वा देने का मुद्दा भी प्रमुखता से छाया रहा। प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण भूटान की राजधानी थिम्पू में एकत्र आठ देशों के नेताओं ने अगले पांच वर्षों में एक करोड़ वृक्ष लगाने का संकल्प व्यक्त किया। इसके अलावा डेढ अ़रब जनसंख्या वाले इस क्षेत्र से गरीबी उन्मूलन के लिये भी मिलकर काम करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी। सम्मेलन के अंत में जारी वक्तव्य में कहा गया है कि 2010-15 के बीच क्षेत्र के सभी सदस्य देशों में एक करोड़ वृक्ष लगाए जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के विषय पर मेक्सिको के कानकुन शहर में पक्षों की समिति (कमिटी ऑफ पार्टीज) की बैठक के पहले सार्क की एक बैठक बुलाने का फैसला किया। मेक्सिको सम्मेलन में सार्क को एक क्षेत्रीय समूह के रूप में पर्यवेक्षक के तौर पर शामिल किये जाने की मांग भी की गई। बांग्लादेश और मालदीव ने उत्सर्जन की सीमा निश्चित किये जाने पर किसी तरह की वचनबद्धता पर विशेष जोर दिया। कोपनहेगन में सितम्बर 2009 में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भारत और चीन ने इस पर असहमति जतायी थी। अत: इस सम्बंध में स्पष्ट नीति निर्धारण और दिशा-निर्देश के लिये जलवायु परिवर्तन पर अन्तर सरकारी विशेषज्ञ समूह के गठन का निर्णय लिया गया। जलवायु परिवर्तन पर सार्क की कार्य योजना में इसी तरह से क्षेत्रीय सहयोग का प्रावधान किया गया है। दक्षिण एशिया पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की जबर्दस्त आशंका के मद्देनजर सदस्य देशों के संयुक्त वक्तव्य में इस चुनौती से निपटने के लिये सर्वोच्च प्राथमिकता देने पर विशेष जोर दिया गया।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सार्क पर्यावरण सहयोग समझौते का स्वागत करते हुए दक्षिण एशिया में जलवायु परिवर्तन पर भारत निधि के गठन की घोषणा की। यह निधि सदस्य देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाव के लिये क्षमता विकास और अनुकूलन तकनीक मुहैया कराने में मदद करेगी। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय संसाधनों पर आधारित संपोषणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के विकास के लिये दक्षिण एशिया में जलवायु नवाचार केन्द्रों की स्थापना की भी पेशकश की। प्रधानमंत्री ने बताया कि हिमालयीन पारिस्थितिकी को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये भारत में हाल ही में एक राष्ट्रीय मिशन भी शुरू किया गया है। देहरादून में बन रहा राष्ट्रीय हिमनद विज्ञान संस्थान, इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में क्षेत्रीय सहयोग के केन्द्र बिन्दु के रूप में काम कर सकता है।
हाल के दिनों में सार्क के प्रति दुनिया के देशों में उत्सुकता बढी़ है। यही कारण है कि अनेक प्रमुख देशों और अन्तरसरकारी संगठनों ने सार्क की बैठकों में पर्यवेक्षक के रूप में शामिल होने की रूचि दिखाई है। इस समय नौ पर्यवेक्षक हैं। इनके नाम हैं- आस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ, ईरान, दक्षिण अफ्रीका, जापान, मॉरिशस, म्यांमा, संयुक्त राज्य अमरीका एवं चीन। इन पर्यवेक्षकों की उपस्थिति से क्षेत्रीय सरोकारों से सम्बंधित उन देशों की प्रतिक्रियाओं के बारे में जानने का अवसर मिलता है और तदनुसार नीति निर्धारण अथवा कार्रवाई में आवश्यक परिवर्तन और सुधार आदि किये जाने की गुंजाइश बनी रहती है। विशेषकर व्यापार के मामले में अधिक आदान-प्रदान का अवसर मिलता है। जहां तक क्षेत्रीय व्यापार को बढा़वा देने का प्रश्न है, संगठन के विभिन्न देशों के बीच द्विपक्षीय आधार पर व्यापार बढ रहा है। दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र (सापऊटा) के गठन के बावजूद (जनवरी 2004 में समझौता हुआ और जनवरी 2006 से लागू) सदस्य देशों की अपनी अपनी समस्याओं और विवशताओं के कारण सामूहिक रूप से क्षेत्रीय व्यापार में वह तेजी नहीं आ पायी है जिसकी अपेक्षा है। मुक्त व्यापार के मार्ग में अवरोधक तत्त्वों के निपटारे के लिये सापऊटा की विशेषज्ञ समिति समय-समय पर बैठक कर समस्याओं को दूर करने का प्रयास करती रही है। मूल क्षेत्र के नियम (रूल्स ऑफ ओरिजिन), सीमा शुल्क, कारारोपण, निवेश और मध्यस्थता जैसे तमाम मुद्दों पर भी समिति विचार कर रही है। इन मुद्दों पर आम सहमति से फैसला लेने के प्रयास जारी हैं।
जलवायु परिवर्तन और व्यापार के बारे में दो महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर से थिम्पू शिखर सम्मेलन का एजेंडा पूरा हो गया है। क्षेत्रीय सहयोग के संवर्धन में इन दोनों की महत्त्ववूर्ण भूमिका रहेगी। उधर भारत और पाकिस्तान के बीच बर्फ पिघलने से क्षेत्रीय शांति और सहयोग का एक नया आयाम, भविष्य में देखने को मिलेगा। दक्षिण एशिया के डेढ अ़रब से भी अधिक लोगों की यही कामना है। डॉ. मनमोहन सिंह के शब्दों में कहें तो ""अपने सपनों के दक्षिण एशिया को मूर्तरूप देने के लिए इसे पुन: नए विचारों, नए ज्ञान और नए अवसरों का रुाोत बनाना होगा।""
थिम्पू सार्क शिखर सम्मेलन
सुरेश प्रकाश अवस्थी - 2010-05-08 08:21
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन-सार्क की रजत जयंती के अवसर पर भूटान की राजधानी थिम्पू में सम्पन्न 16वां शिखर सम्मेलन कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण रहा। सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी आठ सदस्य देशों - भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, मालदीव और अफगानिस्तान में इस बात की उत्कंठा दिखाई दे रही थी कि इस क्षेत्र को समूचे विश्व में एक जीवंत क्षेत्र बनाने के लिये एकजुट होकर कार्य करने की अतीव आवश्यकता है। सभी सदस्य देश क्षेत्रीय सहयोग को तीव्र गति देने को इच्छुक दिखायी दिये।