भारत में मानसून हिंद महासागर और अरब महासागर की ओर से हिमालय की ओर बहने वाली हवाओं पर निर्भर करता है। जब ये हवाएं भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर पश्चिमी घाट से टकराती है तो भारत सहित आसपास के देशों में भारी वर्षा होती है। मानसून की भारत यात्रा हर साल अमूमन पहली जून से शुरू होती है, जब वह केरल के तट से टकराता है। जून के मध्य तक देश के बडे हिस्से में उसकी आमद हो जाती है और जून के खत्म होते-होते वह लगभग समूचे भारत को तरबतर कर देता है। इस बार उसके आने मे विलंब हो चुका है। देश के कई राज्यों में मानसून समय पर नहीं पहुंचा है।
दिल्ली सहित उत्तर भारत के मैदानी इलाकों के किसानों को मानसून का इंतजार बना हुआ है। मानसून के अभाव में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में सूखे के हालात बने हुए हैं। निजी मौसम पूर्वानुमान एजेंसी स्काईमेट वेदर के अनुमान के मुताबिक 8 जुलाई से बंगाल की खाडी से पूर्वी हवाएं चलेंगी। इसके बाद ही देश के बाकी हिस्सों में मानसून आगे बढेगा। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि मानसून की धीमी गति की वजह से प्रमुख खरीफ फसलों दलहन, तिलहन, धान और मोटे अनाज की बुवाई में देरी हुई है। अगर एक सप्ताह और बारिश नहीं हुई तो देश के कुछ हिस्सों में फिर से बुवाई करनी पड़ सकती है।
सूखे की आशंका ने न सिर्फ किसानों की सिहरन बढ़ा दी है बल्कि उद्योग जगत भी सहमा हुआ है। आसन्न सूखे के खतरे से महंगाई के और बढ़ने की आशंका भी है। नतीजतन औद्योगिक विकास दर के घटने का भी अंदेशा बढ़ गया है। समझा जा सकता है कि आने वाले दिन न सिर्फ कृषि क्षेत्र के लिए बल्कि समूची अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चुनौती भरे रहने वाले हैं। सवाल है कि क्या हमारी सत्ता केंद्रित राजनीति इस चुनौती से निबटने का कोई ठोस रास्ता तलाशेगी या कुदरत को ही कोसती रहेगी या फिर खेती को कॉरपोरेट घरानों के हवाले करने के इरादों पर कायम रहेगी?
यकीनन सूखे की आहट किसानों के साथ-साथ उद्योग जगत और देश के आर्थिक प्रबंधकों का दिल दहलाने लगी है, क्योंकि रोजगार और उपभोक्ता मांग से कृषि क्षेत्र का परस्पर गहरा नाता है। इस बार कम बारिश से स्थिति इसलिए भी अधिक भयावह हो सकती है, क्योंकि देश पिछले साल भी कम बारिश की मार झेल चुका है। रही-सही कसर पिछले दिनों आए दो भीषण तूफानों और उनकी वजह से हुई बेमौसम बरसात ने पूरी कर दी है। ऐसे में साफ है कि कमतर बारिश किसानों के साथ-साथ समूची अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ सकती है। पिछले वर्ष भी कमजोर बारिश का असर खाद्यान्न उत्पादन पर देखा गया था। यदि मानसून ने अपना यही रंग-ढंग इस वर्ष भी दिखाया, तो महंगाई की मार तो पडेगी ही, इसके साथ ही उन योजनाओं पर भी पानी फिर सकता है, जिनके जरिए केंद्र सरकार निवेश जुटाना चाहती है।
मौसम के बदलते तेवरों के साथ बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से तहस-नहस खेती के बाद मानसून पर टिकी किसानों की आस अभी से छूटती दिख रही है। लेकिन मामला इतने पर ही खत्म नहीं हो रहा है। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों की माने तो प्रशांत महासागर का तापक्रम बढने से उत्पन्न होने वाला अल नीनो का दैत्य अगले साल के मानसून तक भी असर डाल सकता है। ऐसी भयंकर आशंकाएं अगर सही साबित हुई तो इसका असर न केवल किसानों पर बल्कि देश की विशाल आबादी को गहरे जख्मों से भर कर रख देगा।
हम ज्यादा या कम बारिश के लिए के लिए मानसून को दोषी ठहरा सकते हैं, पर इससे पैदा होने वाली समस्याओं के लिए हम खुद ही जिम्मेदार है। यह प्राकृतिक कारण नहीं है बल्कि हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली का नतीजा है कि हम न तो सिंचाई के मामले में आत्मनिर्भर हो पाए और न ही फालतू बह जाने वाले वर्षा-जल के संग्रहण और प्रबंधन की कोई ठोस प्रणाली विकसित कर सके। आजादी के बाद की हमारी समूची राजनीति इस बात की गुनहगार है कि जिस तरह उसने देश के सभी लोगों को स्वच्छ पानी पीने के अधिकार से वंचित रखा, वैसे ही फसलों के लिए भी पानी का पर्याप्त इंतजाम नहीं किया। उन्हें आवारा बादलों के रहमो-करम पर जीने-मरने के लिए छोड दिया गया।
वैसे देश में खेतीबाडी की बदहाली हाल के वर्षों की कोई ताजा परिघटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत आजादी के पूर्व ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हो गई थी। कोई समाज कितना ही पिछडा क्यों न हो, उसमें बुनियादी समझदारी तो होती ही है। अंग्रेजों से पहले के राजे-रजवाडे खेतीबाडी के महत्व को समझते थे। इसलिए वे किसानों के लिए नहरें-तालाब इत्यादि बनवाने और उनकी साफ-सफाई करवाने में पर्याप्त दिलचस्पी लेते थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि किसान की जेब गरम रहेगी तो ही हम तमाम मौज-शौक कर सकेंगे। उस दौर में देश के हर इलाके में खेतों की सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछा हुआ था।
भारत ही नहीं, कृषि पर आधारित दुनिया की किसी भी सभ्यता में नहरों का केंद्रीय महत्व हुआ करता था। यह भी कह सकते हैं कि यही नहरें उनकी जीवन रेखा होती थीं। भारत में इस जीवन रेखा को खत्म करने का पाप अंग्रेज हुक्मरानों ने किया। जहां-जहां उन्होंने जमींदारी व्यवस्था लागू की वहां-वहां नहरें या तो सूख गईं या फिर उन्हें पाट दिया गया। भ्रष्ट और बेरहम जमींदार पूरी तरह अंग्रेज परस्त थे और राजाओं के कारिंदे होते हुए भी अंग्रेजों को ही अपना भगवान मानते थे। किसानों की समस्याओं से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। उन्हें तो बस किसानों से समय पर लगान चाहिए होता था।
समय पर लगान न चुकाने वाले किसानों पर जमींदार और उनके कारिंदे तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक जुल्म ढहाते थे। रही सही कसर सूदखोर महाजन पूरी कर देते थे, जो किसानों को कर्ज और ब्याज की सलीब पर लटकाए रहते थे। तो इस तरह ब्रिटिश हुक्मरानों के संरक्षण में, जालिम जमींदारों और लालची महाजनों के दमनचक्र के चलते भारतीय खेती के सत्यानाश सिलसिला शुरू हुआ, जो बदले हुए रूप में आज भी जारी है।
आजाद भारत के हुक्मरान चाहते तो भारतीय खेती को पटरी पर लाने के ठोस जतन कर सकते थे, लेकिन गुलामी के कीटाणु उनके खून से नहीं गए तो नहीं ही गए। उनकी भी विकासदृष्टि अपने पूर्ववर्ती गोरे शासकों से ज्यादा अलहदा नहीं रह पाई। उनके लिए देश की किसान बिरादरी का महत्व इतना ही था कि वह अन्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बना सकती है। उसके लिए जितना करना जरूरी था, उतना कर दिया गया। चूंकि उनकी समझ यह भी बनी हुई थी और आज भी बनी हुई है कि जरूरत पडने पर विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने कभी यह महसूस ही नहीं किया कि हमारी खेतीबाडी समद्ध हो और हमारे किसान व गांव खुशहाल बने। नतीजा यह हुआ कि आयातित बीजों और रासायनिक खाद के जरिए जो हरित क्रांति हुई, वह अखिल भारतीय स्वरूप नहीं ले सकी। उसका असर सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश जैसे देश के उन्हीं इलाकों में देखने को मिला, जहां के किसान खेती में ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश कर सकते थे।
शासक वर्ग का मकसद यदि आम किसानों को सुखी-समृद्ध बनाने का होता तो देश के उन इलाकों में नहरों का जाल बिछा दिया जाता, जहां सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। ऐसा होता तो खेती की लागत भी कम होती और कर्ज की मार तथा मानसून की बेरुखी के चलते किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होना पडता।
लेकिन हुआ यह कि जो बची-खुची नहरें, तालाब इत्यादि परंपरागत सिंचाई के माध्यम थे, उन्हें भी दिशाहीन औद्योगीकरण और सर्वग्रासी विकास की प्रक्रिया ने लील लिया। जहां खेती में पूंजी निवेश हुआ, वहां भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन हुआ और बिजली की जरूरत भी बढ गई। रही-सही कसर कीमतों की मार और बेहिसाब करारोपण ने पूरी कर दी।
विश्व बैंक के एक आकलन के अनुसार भारत की कुल खेती के मात्र 35 प्रतिशत हिस्से को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। यानी लगभग दो-तिहाई खेती आसमान भरोसे है। जिस देश की लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका खेती से जुडी हुई हो, उसकी एक अनिवार्य जरुरत यानी सिंचाई की इस उपेक्षा को आपराधिक षडयंत्र के अलावा और क्या कहा जा सकता है? देश के अधिकांश क्षेत्रों में बिजली सरकारी सेक्टर में है, पर वह गांवों को इतनी बिजली नहीं दे सकता कि किसान दिन में अपने खेतों की सिंचाई कर रात को चैन की नींद सो सके। गांवों में बिजली दिन में नहीं, रात में आती है और वह भी कुछ घंटों के लिए।
क्या यह किसी लोक हितकारी व्यवस्था का लक्षण है कि अपना पैसा खर्च कर धरती से पानी निकालने के लिए किसानों को रात-रात भर जागना पडे? देश की आजादी के आतवें दशक में भी देश के आधे से अधिक किसान मानसून की मेहरबानी पर जिंदा हैं। यह तथ्य अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि हमारा व्यवस्था तंत्र अभी शराफत और अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से कोसों दूर है। (संवाद)
रूठा मानसून, संकट में खेती और निष्ठुर राजनीति
मौसम विभाग की भविष्यवाणी आमतौर पर गलत साबित होती है
अनिल जैन - 2021-07-03 12:19
भारत में मानसून को लेकर मौसम विभाग का अनुमान या भविष्यवाणी आमतौर पर गलत ही साबित होती है। इसलिए इस बार भी ऐसा हो रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं। इस बार भी मौसम विभाग ने मानसून समय पर आने की भविष्यवाणी करते हुए 104 से 110 फीसद वर्षा की संभावना जताई है। इस स्थिति को सामान्य से अधिक वर्षा माना जाता है, लेकिन मौसम विभाग का यह अनुमान हकीकत से दूर नजर रहा है। मानसून की आमद में हो रही देरी से पिछले दिनों बेमौसम बारिश की मार झेल चुके कृषि क्षेत्र का संकट और गहरा हो गया है। केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों से पैदा हुआ संकट भी अभी कायम है, जिसके खिलाफ पिछले सात महीने से कई राज्यों के किसान आंदोलन कर रहे हैं।