यह सब एकाएक कैसे हो गया, इसके अनेक कारण बताए जा रहे हैं, लेकिन सबका निष्कर्ष एक ही है कि अफगानी राजनैतिक नेतृत्व और सेना अमेरिका का साथ छूटते ही अपने घुटने पर आ गए। खुद राष्ट्रपति गनी अपनी जान बचाते हुए देश से बाहर भाग खड़े हुए। उन्होंने दो कारण बताए। पहला कारण अफगानिस्तान से संबंधित था। उन्हें लगा कि यदि वे तालिबान से भिड़ गए, तो भारी रक्तपात होगा और विनाश भी बहुत होगा। पूरा काबुल तहस नहस हो जाएगा। पिछले 20 साल में अफगानिस्तान ने जो कुछ भी हासिल किया है, वह समाप्त हो जाएगा। इसलिए 20 साल की उपलब्धियों को बचाने के लिए उन्होंने गृहयुद्ध को टालना ही उचित समझा। अतः वे भाग खड़े हुए।
दूसरा कारण उन्होंने जो बताया है, वह बहुत निजी है। उनका कहना है कि एकाएक तालीबानी उनके राष्ट्रपति महल में आ धमके। वे स्थानीय भाषा नहीं बोल रहे थे। मतलब वे गैर अफगानी थे। उन्हें लगा कि वे पकड़ लिए जाएंगे और तालिबान उन्हें भी उसी तरह फांसी पर लटका देगा, जिस तरह से उसने 1990 के दशक के मध्य में अफगानिस्तान के पूर्व कम्युनिस्ट प्रशासक नजीबुल्लाह को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था। इसलिए वे तत्काल राष्ट्रपति भवन छोड़कर भाग गए।
स्पष्ट है कि अफगानिस्तान की पूरी सेना और राजनैतिक नेतृत्व अमेरिका के समर्थन से विहीन होकर तालिबान से युद्ध करने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं था। इसका एक कारण तो यही था कि वे तालिबान की जीत को निश्चित मान रहे थे। वे ही क्यों, पूरी पाश्चात्य मीडिया वर्ल्ड और अफगानिस्तान के मामले के सभी विशेषज्ञ भी ऐसा ही मान रहे थे। कोई छह महीने का समय बता रहा था, तो कोई कुछ साल का समय अफगानिस्तान की गनी सरकार को दे रहा था। जिस लड़ाई का नतीजा पहले से ही स्पष्ट हो, उस लड़ाई में अफगानी सेना क्यों हिस्सा लेते या अफगानिस्तान का राजनैतिक नेतृत्व उस लड़ाई में क्यों शामिल होता। लिहाजा, उन्होंने बिना लड़े ही समर्पण कर देना जरूरी समझा। हां, छिटपुट संघर्ष हुए, लेकिन वे कुछ उत्साही अफगानी सैनिकों के उत्साह थे, लेकिन संगठन के स्तर पर अफगान सेना ने युद्ध में हिस्सा लिया ही नहीं।
अब जब तालिबान के हाथ में सत्ता आ गई है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है। तालिबानी कब्जे के बाद व्यापक मारकाट का जो डर था, वह गलत साबित हो गया है। लेकिन इसका कारण यह है कि बिना व्यापक मारकाट के ही तालिबान सत्ता में आ गया है, इसलिए उसे प्रतिशोधात्मक हिंसा करने की जरूरत भी नहीं है। दूसरा कारण यह है कि तालिबानी नेता अब अनुभवी हो गए हैं और वे यह जानते हैं कि नाटो या अमेरिका ने फिर से कार्रवाई शुरू कर दी, तो वे सत्ता में नहीं रह सकते। उन्होंने सद्दाम, आईएसआई और खुद अपना भी अमेरिका से हुए हश्र को देख चुके हैं। इसलिए सत्ता पाने के तुरंत बाद वे ऐसा कुछ नहीं करना चाहते, जिससे वापस जा रही नाटो सेना फिर से अफगानिस्तान को अपना युद्धक्षेत्र बना ले। इसलिए वे ऐसे बयान दे रहे हैं, जिनसे दुनिया को लगे कि अब यह तालिबान वह तालिबान नहीं रहा, जिसने 1996 में अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। सच तो यह है कि तालिबानी अपनी उपलब्धि हो और भी मजबूती देना चाहते हैं। उनके पास अमेरिका के सॉफिस्टीकेटेड हथियार आ गए है, जिनमें से अनेकों का तो वे इस्तेमाल भी नहीं करना जानते। वे अफगानिस्तान की अपदस्थ सरकार की सेना के जबानों को इसलिए अपनी नई निर्मित सेना में रखना चाहते हैं, ताकि वे जरूरत पड़ने पर अमेरिका के उन हथियारों का इस्तेमाल कर सकें और अपने लड़ाके तालिबानों को भी उन हथियारों का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने दें।
लेकिन एक और तय बात यह भी है कि सत्ता जितनी आसानी से तालिबान को मिली है, उतनी आसानी से वे सत्ता में बने नहीं रह सकते। तालिबान एक धर्मांध लोगों का गिरोह है और उसके सुप्रीम नेता मृल्ला अखंडीजादा एक इस्लामिक स्कॉलर हैं। इस्लाम का उनके पास देवबंदी सलाफी विजन है और उसी विजन से वह अफगानिस्तान में सरकार चलाएंगे, अभी वे चाहे जो भी कह लें। जब मुल्ला उमर का शासन था, तो उस समय भी अखंडीजादा उमर के खास धार्मिक मामलों के सलाहकार थे। महिलाओं के प्रति उन्होंने जो इस्लामिक नीति अपना रखी थी, उससे वे कोई अलग नीति इस आर अपनाएंगे, इसकी संभावना बहुत कम है। वैसे इस बार उनके अलावा और भी नेता हैं, जो नई सरकार के निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं। वैसे एक नेता तो मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ही हैं। उमर के समय में वे उनके डिपुटी हुआ करते थे। उमर की मौत के समय वे पाकिस्तान की जेल में थे, अन्यथा तालिबान के सुप्रीमो के रूप में मुल्ला उमर के उत्तराधिकारी वही बनते। लेकिन मुल्ला मंसूर उस समय तालिबान सुप्रीमो बने और मुल्ला मंसूर के मारे जाने के बाद अखंडीजादा प्रमुख बने। 2010 से 2018 तक जेल में रहने के बाद मुल्ला बरादर को अमेरिका ने बातचीत के लिए वहां से बाहर निकाला और उनके साथ हुई बातचीत के बाद ही नाटो ने अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला किया।
बरादर को भी अखंडीजादा का डिपुटी कहा जा रहा है, लेकिन सत्य यह नहीं है। उन्होंने दो डिपुटी बनाए थे। एक तो मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याकूब हैं और दूसरे सज्जाद हक्कानी। पहले मुल्ला उमर के डिपुटी होने के कारण बरादर को भी अखंडीजादा का डिपुटी कहा जा रहा है। तालिबान का शासन कैसे चलेगा, वह बहुत कुछ अखंडीजादा और बरादर के संबंधों पर निर्भर करता है। यदि दोनों मे थोड़ा भी मतभेद हुआ, तो इससे तालिबान शासन का भविष्य प्रभावित हो सकता है। (संवाद)
अफगानिस्तान तख्तापलट और उसके बाद
तालिबान की राह आसान नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-08-19 09:44
अफगानिस्तान में तालिबान ने तख्तापलट कर दिया। दुनिया आज सदमे में है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन को कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि यह क्या हो गया। उन्होंने तो सोचा था कि तख्तापलट होने मे कुछ महीने लग जाएंगे और तबतक अमेरिका वहां से बाहर हो जाएगा, लेकिन अभी भी अमेरिकी अफगानिस्तान में फंसे हुए हैं और उन्हें वहां से बाहर निकालने के लिए अमेरिका तालिबान की दया पर निर्भर है।