शनिवार, 9 दिसम्बर, 2006
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता
दोनों देशों की दुविधाएं और सिद्धांत का सवाल
ज्ञान पाठक
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को मंज़ूरी दे देने के बाद इसे लागू करने के मार्ग में बाधाएं खत्म सी हो गयी हैं, हालांकि कुछ और अड़चनें अभी बाकी हैं। भारत और अमेरिका के सत्तारुढ़ इस समझौते का लागू करने के प्रति काफी उत्साही रहे हैं, हालांकि दोनों देशों में इसके विरोधियों की संख्या भी कम नहीं रही है। यदि यह समझौता ठीक उसी ढंग से लागू हुआ जैसा कि दोनों देशों के सत्तारुढ़ वर्ग चाहते हैं, तो अमेरिकी अधिकारी भारत के चिह्नित नाभिकीय प्रतिष्ठानों का निरीक्षण का अधिकार प्राप्त कर लेंगे और इसके बदले भारत को अमेरिका असैनिक कार्यों के लिए परमाणु ईंधन और तकनीक देगा।
इस समझौते को कल ही अमेरिकी प्रतिनिधी सभा ने भारी बहुमत से मंजूरी दे दी है। लंबी चली बहस के बाद 330 सांसदों ने इस समझौते के पक्ष में तथा 59 सांसदों ने इसके विरोध में मतदान किया। अब इस प्रस्ताव को अमेरिकी संसद के उच्च सदन सीनेट की मंज़ूरी मिलनी बाकी है। सीनेट की मंज़ूरी के बाद यह सहमति भारत और अमरीका के बीच द्विपक्षीय समझौते में तब्दील हो जायेगी। संभावना व्यक्त की जा रही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश इस विधेयक पर सोमवार को हस्ताक्षर कर देंगे।
इस क़ानून के पास हो जाने के बाद अमेरिका की तीन दशक पुरानी परमाणु अप्रसार नीति भी बदल जायेगी। आधिकारिक तौर पर अमेरिका ने कहा है कि परमाणु समझौते के मसौदे में भारत की चिंताओं का ख़्याल रखते हुए कई प्रावधानों को ख़त्म कर दिया गया है, जबकि भारत ने कहा है कि विधेयक के प्रारुप में कुछ बाहरी तत्व डाले गये हैं और उसके कई प्रावधानों में भारत के लिए नुस्खे शामिल किये गये हैं। भारत का कहना है कि 18 जुलाई 2005 को जारी संयुक्त बयान और 2 मार्च 2006 के भारत अमेरिकी संयुक्त घोषणा की परिकल्पनाओं का इसमें पूरा ध्यान नहीं रखा गया है।
क्या होगा इस समझौते का असर ? इस सवाल के जवाब में अभी इतना ही कहा जा सकता है कि इसके लागू होने के साथ ही अमेरिकी परमाणु अप्रसार की पुरानी नीति तो बदल ही जायेगी, अनेक देशों की नीतियां बदलेंगी। भारत को अमेरिका ही नहीं, दूनिया भर के देशों को एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रुप में देखने की एक तरह से बाध्यता हो जायेगी। स्वयं भारत के अंदर की परमाणु नीति भी बदल जायेगी। इससे फायदा किसे होगा और नुकसान किसे ? इस सवाल पर अभी दूनिया भर के विश्लेषकों में आम राय नहीं है। परमाणु ईंधन की आपूर्ति करने वाले 45 सदस्य देशों को अब अपने क़ानून बदलने होंगे, यदि उन्हें भारत को आपूर्ति कर धन कमाना है।
सबसे पहले भारत की समस्या देखिये। यदि चिह्नित असैनिक नाभिकीय प्रतिष्ठानों के निरीक्षण की इजाजत भारत अमेरिका को दे देता है तो कम से कम इस मामले में भारत की संप्रभुता समाप्त हो जायेगी। अमेरिका को भारत के नाभिकीय सैन्य और असैन्य कार्यक्रमों के बारे में वह सब कुछ पता लग जायेगा जो अभी तक भारत द्वारा गुप्त रखा गया है।
अमेरिका कभी नहीं चाहता था कि भारत एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन जाये। उसकी इच्छा के विरुद्ध भारत ने अनुसंधान और विकास किया, उसके प्रतिबंधों के बावजूद। भारत के पास यूरेनियम का भंडार काफी कम है, इसलिए देश के वैज्ञानिकों ने थोरियम को ईंधन के रुप में इस्तेमाल करने की तकनीक विकसित की। थोरियम का हमारे पास विशाल भंडार है।
दुनिया की, अमेरिका समेत, समस्या यह है कि यदि भारत थोरियम के इस्तेमाल का रास्ता अपनाता है तब किसी के लिए भारत को छू पाना भी मुश्किल हो जायेगा। इसलिए रणनीति अपनायी गयी कि भारत किसी तरह थोरियम के रास्ते का त्याग करे।
भारत के वर्तमान शासक थोरियम के रास्ते का त्याग करने को राजी हो गये। क्यों हुए इसका सटीक कारण तो शासक ही जानते हैं। जब भारत-अमेरिकी समझौते के भविष्य पर अटकलें लगायी जा रही थीं उस समय कुछ ही माह पहले भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष का बयान आया था कि यदि समझौता विफल हो गया तो भारत को पर्यावरण के लिए नुकसानदेह थोरियम मार्ग अपनाना पड़ेगा। उस बयान से साफ था कि भारत थोरियम के आत्मनिर्भर मार्ग को सदा के लिए त्याग रहा है और यूरेनियम के दूसरों पर निर्भर रहने का मार्ग अपनायेगा। यूरेनियम का भंडार भारत में नहीं रहने के कारण इसे अमेरिका और अन्य देशों से यूरेनियम और अन्य तकनीक आयात करते रहना होगा। भारत के शासकों ने इस समय नहीं सोचा कि अपने विकास को ध्वस्त कर विदेशों से आयात की कीमत देश को क्या चुकानी होगी।
उधर अमेरिका के लिए काफी लाभदायक स्थिति बन गयी है। अमेरिका भारत से जो चाहता है, भारत के शासक कर रहे हैं, और दोनों देशों के शासक इसे इस ढंग से कर रहे हैं ताकि भारत की जनता बगावत न कर दे। इसलिए जनता को बार-बार बताया जा रहा है कि भारत के हितों का पूरा ख्याल रखा गया है, जबकि यह बात सरासर झूठ है। सवाल मूल्यों की रक्षा का है न कि भौतिक संपदा का। लेकिन भारत के वर्तमान शासक शायद समझते हैं कि आत्मसम्मान, देशभक्ति और संप्रभुता तो आने जाने वाली चीज है, पहले किसी भी तरह कुछ धन कमा लो। संभवतः इसलिए भारत के लोगों को बताया जा रहा है कि इस समझौते से भारत में बिजली की कमी दूर हो जायेगी और तेजगति विकास होगा। और कीमत क्या अदा करनी होगी ? यह पूछने वाला आज कोई नहीं।
उधर अमेरिका की समस्याएं भी कम नहीं हैं। दशकों से अमेरिका दूनिया भर में परमाणु अप्रसार की मुहिम चला रहा है क्योंकि परमाणु बम का इस्तेमाल करने वाला यह एकलौता देश जानता है कि इसकी ताकत पर ही वह आज दुनिया में अपनी धाक रखता है। उसकी कथनी और करनी से साफ है कि जो देश उसके इशारे पर नहीं चलता उसे नष्ट करने में भी वह संकोच नहीं करता। लेकिन उसकी चिंता यह कि दुनिया के कई अन्य देशों ने भी नाभिकीय शक्ति हासिल कर ली है।
वह उत्तर कोरिया और ईरान को धमकियां दे रहा है कि वे परमाणु कार्यक्रम बंद करें। लेकिन भारत को साथ समझौता करने के बाद उनपर सैद्धांतिक तौर पर रोक लगाना भी उसके लिए मुश्किल हो जायेगा। इसलिए उसने कहा है कि भारत का उदाहरण किसी अन्य देश पर लागू नहीं होगा।
भारत को अब वह अंकुश में भी रख सकेगा और नाभिकीय ईंधन तथा तकनीक बेचकर भारी लाभ भी कमायेगा। भारत सोने की चिड़िया थी और आज भी दुनिया के लोग इसकी संपदा पर आंख टिकाये हुए हैं। भारत के पास आयात करने के लिए भी भारी विदेशी मुद्रा भंडार है, जिसे इस देश के शासक अनावश्यक आयात में लुटा सकते हैं। उन्हें रोकने की स्थिति में आज कोई भी राजनीतिक पार्टी या शख्सीयत नहीं है।
स्पष्ट है कि परमाणु अप्रसार से सिद्धांतों से ज्यादा रणनीति ही अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है अन्यथा वह इस सिद्धांत को ताक पर रखकर भारत के साथ समझौता नहीं करता। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार इस समझौते को चीन से जोड़कर देखते हैं जो दुनिया का सबसे तेज गति से विकसित होने वाला देश है। अमेरिका उसे नियंत्रित करना चाहता है और इसी की परिणति है भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौता, विशेषज्ञों का कहना है।#
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता
दोनों देशों की दुविधाएं और सिद्धांत का सवाल
System Administrator - 2007-11-11 06:37
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को मंज़ूरी दे देने के बाद इसे लागू करने के मार्ग में बाधाएं खत्म सी हो गयी हैं, हालांकि कुछ और अड़चनें अभी बाकी हैं। भारत और अमेरिका के सत्तारुढ़ इस समझौते का लागू करने के प्रति काफी उत्साही रहे हैं, हालांकि दोनों देशों में इसके विरोधियों की संख्या भी कम नहीं रही है।