“पूरी दुनिया में हर रोज भूख से तड़पती, दुबली-पतली महिलाओं और बच्चों की हवा में हत्या हो रही है और लदे-फटे, रेंगते हुए पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को भोजन, पानी, दवा से वंचित किया जा रहा है, जबकि उनसे लदे हुए काफिले कुछ ही दूरी पर खड़े हैं। दुनिया में किसी ने भी हस्तक्षेप नहीं किया है। ऐसा लगता है कि हिटलर ने नेतन्याहू के रूप में पुनर्जन्म लिया है। इजरायली सेना को कभी दुनिया की सबसे पेशेवर लड़ाकू सेना माना जाता था। अब वह निहत्थे, दुबले-पतले, असहाय पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या कर रही है। बहादुरी के नाम पर यह दुष्टता की पराकाष्ठा है,” थर्ड मिलेनियम इक्विपोइज के लेखक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) विनोद सहगल ने स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा।

एक सदी, जो एआई जैसी अत्यधिक उन्नत तकनीकी क्रांति का दावा करती है, यह सुनिश्चित करने में असमर्थ है कि नये विकास का उपयोग मानव जाति के कल्याण के लिए किया जायेगा। आज सब कुछ इतना पारदर्शी हो गया है कि पृथ्वी पर कहीं भी होने वाली छोटी से छोटी हरकत भी पूरी दुनिया देख सकती है। हालांकि यह गंभीरता से सोचने का विषय है कि क्या ऐसी प्रगति ने हमारी संवेदनशीलता को अवरुद्ध कर दिया है? क्या यह कि घटनाओं को स्पष्ट रूप से देखने के बावजूद लोग झूठ और मनगढ़ंत विचारों पर विश्वास करने लगे हैं? वे धर्म, जातीयता या अन्य कारकों के आधार पर अति-राष्ट्रवाद और दूसरों के प्रति घृणा से बहक रहे हैं, इस प्रकार वे मूल मानवीय सार और सहानुभूति की प्रवृत्ति को खो रहे हैं। इसलिए समय आ गया है कि हम पूर्व-निर्धारित विचारों से छुटकारा पायें, संकीर्ण दृष्टि को त्यागें और चारों ओर की हर चीज को खुली आंखों और व्यापक सोच के साथ देखें।

एक भी अप्राकृतिक मौत को उचित ठहराने के बजाय, पूरी घटना को उचित परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यदि हमास द्वारा 1200 से अधिक लोगों की हत्या और 250 निर्दोष लोगों को बंधक बनाना आतंकवादी कृत्य है, तो हम उस कृत्य को क्या कहेंगे जिसमें 17000 से अधिक बच्चों की हत्या हुई है।

यरुशलम में कई सौ साल पहले विवाद हो सकते थे, लेकिन अगर हम आज उन घटनाओं को ध्यान में रखते हुए जीते हैं और एक-दूसरे से बदला लेने के बारे में सोचते हैं तो हम कभी भी शांति और सद्भाव प्राप्त नहीं कर पायेंगे। 26 मई 2025 को यरुशलम में अल्ट्रा नेशनलिस्ट यहूदियों द्वारा किया गया मार्च एक अत्यधिक भड़काऊ कृत्य है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुनिया भर की सरकारें इस स्थिति पर शायद ही कोई प्रतिक्रिया दे रही हैं। रूस और चीन केवल दिखावटी बातें कर रहे हैं। यूरोपीय देश जो पूरी दुनिया को नैतिकता का उपदेश दे रहे हैं, उन्होंने इजरायल की हरकतों का विरोध नहीं किया है। फ्रांस और ब्रिटेन की हालिया घोषणाएं स्वागत योग्य हैं। अमेरिका तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) के फैसले का समर्थन करने के बजाय दोनों संस्थाओं का उपहास उड़ा रहा है। वे इजरायल को भारी मात्रा में हथियार मुहैया करा रहे हैं। इजरायल सरकार पहले ही आईसीसी और आईसीजे के फैसलों को खारिज कर चुकी है।

कई अरब देश अमेरिका के साथ हैं, जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप की मध्य पूर्व यात्रा के दौरान देखा गया, जो एक चिंताजनक बात है। उन्होंने फिलिस्तीनियों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है। विकासशील देश जो एक समय में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) के तहत एकजुट थे, अब सक्रिय नहीं हैं। भारत सरकार जो फिलिस्तीनी मुद्दों की कट्टर समर्थक हुआ करती थी, उसके वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व में अब उनके लिए कोई प्यार नहीं बचा है। इसके बजाय वह इजरायल का पक्ष ले रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा शासित राज्यों में फिलिस्तीन के पक्ष में सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन, यहां तक कि इनडोर मीटिंग की भी अनुमति नहीं दी जा रही है।

अब यह पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है कि नेतन्याहू सरकार को बंधकों में कोई दिलचस्पी नहीं है। गाजा का लगभग 80% हिस्सा इजरायली रक्षा बलों के नियंत्रण में है, फिर हमास कहां छिपा हुआ है? उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में बंधकों को इतने लंबे समय तक सुरक्षित स्थानों पर कहां रखा था?

सरकारें अपने कर्तव्य को समझने में विफल रही हैं। नागरिक समाज के सामने कार्य बहुत कठिन और जटिल है। अगर हम अभी नहीं बोलते हैं, तो जल्द ही बोलने के लिए कोई समय नहीं बचेगा। यह स्थिति, अगर नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का भी खतरा हो सकता है जो विनाशकारी होगा। नागरिक समाज को सरकारों पर इजरायल का विरोध करने के लिए दबाव डालना चाहिए। हमें अपने-अपने देशों में इजरायली दूतावास को पत्र लिखना चाहिए।

अतीत में ऐसे उदाहरण रहे हैं जब अंतरराष्ट्रीय शांति सेनाएं संघर्ष क्षेत्रों में गयीं और कई लोगों की जाने बचायीं। शांति समूहों और नागरिक समाज की मजबूत आवाज मायने रखेगी। (संवाद)